श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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देवगंधारी ॥ माई सुनत सोच भै डरत ॥ मेर तेर तजउ अभिमाना सरनि सुआमी की परत ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: माई = हे माँ! सोच = चिन्ता। भै = अनेक डर सहम। तजउ = त्यागूँ, मैं छोड़ दूँ। परत = पड़ी रह के।1। रहाउ।

नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन।

अर्थ: हे माँ! (पति प्रभु की शरण ना पड़ने वालियों की दशा) सुन के मुझे चिन्ता छा जाती है, मुझमें डर-सहम व्याप्तता है, मैं डरती हूँ (कि कहीं मेरा भी ऐसा हाल ना हो। इस वास्ते मेरा सदा ही ये तमन्ना रहती है कि) मालिक-प्रभु की शरण पड़ी रहके मैं (अपने अंदर से) मेर-तेर गवा दूँ, अहंकार त्याग दूँ।1। रहाउ।

जो जो कहै सोई भल मानउ नाहि न का बोल करत ॥ निमख न बिसरउ हीए मोरे ते बिसरत जाई हउ मरत ॥१॥

पद्अर्थ: भल = भला। मानउ = मानूँ, मानती हूँ। नाहिन = नहीं। काबोल = कुबोल, कटु वचन। निमख = आँख झपकने जितना समय। बिसरउ = कहीं विसर जाए। हीए मोरे ते = मेरे हृदय से। हीआ = हृदय। जाई = जाए। हउ = मैं।1।

नोट: ‘बिसरउ’ है हुकमी भविष्यत, अन्य-पुरुष, एकवचन।

अर्थ: हे माँ! प्रभु-पति जो जो हुक्म करता है, मैं उसी में भला समझती हूँ, मैं (उसकी मर्जी के बारे में) कोई उल्टा बोल नहीं बोलती। (हे माँ! मेरी सदैव ये प्रार्थना है कि) पलक झपकने जितने समय के लिए भी वह प्रभु-पति मेरे हृदय से ना बिसरे, (उसको) भूलने से मुझे आत्मिक मौत आ जाती है।1।

सुखदाई पूरन प्रभु करता मेरी बहुतु इआनप जरत ॥ निरगुनि करूपि कुलहीण नानक हउ अनद रूप सुआमी भरत ॥२॥३॥

पद्अर्थ: सुखदाई = सुख देने वाला। इआनप = अंजानापन। जरत = सहता। निरगुनि = (स्त्रीलिंग) गुणहीन। करूपि = बुरे रूप वाली। हउ = मैं। भरत = भरता, पति।2।

अर्थ: हे माँ! वह सर्व-व्यापक कर्ता-प्रभु (मुझे) सारे सुख देने वाला है, मेरे अंजानेपन को वह बहुत बर्दाश्त करता रहता है। हे नानक! (कह: हे माँ!) मैं गुण-हीन हूँ, मैं कुरूप हूँ, मेरी कुल भी श्रेष्ठ नहीं है; पर मेरा पति-प्रभु सदा खिले माथे (आनंदमयी) रहने वाला है।2।3।

देवगंधारी ॥ मन हरि कीरति करि सदहूं ॥ गावत सुनत जपत उधारै बरन अबरना सभहूं ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मन = हे मन! कीरति = महिमा। सद हूँ = सदा ही। उधारै = (संसार समुंदर से) बचा लेता है। बरन = सवर्ण, ऊँची जाति वालों को। अबरना = अवर्ण, नीच जाति वालों को। सभ हूँ = सब को।1। रहाउ।

अर्थ: हे (मेरे) मन! सदा ही परमात्मा की महिमा करता रह। (महिमा के गीत) गाने वालों को, सुनने वालों को, नाम जपने वालों को, सभी को (चाहे वह) ऊँची जाति वाले (हों, चाहे) नीच जाति वाले - सबको परमात्मा संसार समुंदर से बचा लेता है।1। रहाउ।

जह ते उपजिओ तही समाइओ इह बिधि जानी तबहूं ॥ जहा जहा इह देही धारी रहनु न पाइओ कबहूं ॥१॥

पद्अर्थ: जह ते = जहाँ से, जिस जगह से। तही = उसी जगह में। बिधि = तरीका। तब हूँ = तब ही। जहा जहा = जहाँ जहाँ। देही = शरीर। कब हूँ = कभी भी।1।

अर्थ: (हे मेरे मन! जब महिमा करते रहें) तब ही ये बिधि समझ में आती है कि जिस प्रभु से जीव पैदा होता है (महिमा की इनायत से) उसी में लीन हो जाता है। (हे मन!) जहाँ जहाँ भी परमात्मा ने शरीर-रचना की है, कभी भी कोई सदा यहाँ टिका नहीं रह सकता।1।

सुखु आइओ भै भरम बिनासे क्रिपाल हूए प्रभ जबहू ॥ कहु नानक मेरे पूरे मनोरथ साधसंगि तजि लबहूं ॥२॥४॥

पद्अर्थ: भै = डर। संगि = संगति में। तजि = त्याग के। लब = लालच।2।

नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन।

अर्थ: (हे मेरे मन! सदा महिमा करता रह) परमात्मा जब दयावान होता है (उसकी मेहर से) आनंद (हृदय में) आ बसता है, और, सारे डर भ्रम नाश हो जाते हैं। हे नानक! कह: साधु-संगत में (महिमा की इनायत से) लालच त्याग के सारे उद्देश्य पूरे हो गए हैं।2।4।

देवगंधारी ॥ मन जिउ अपुने प्रभ भावउ ॥ नीचहु नीचु नीचु अति नान्हा होइ गरीबु बुलावउ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मन = हे मन! जिउ = जैसे हो सके। प्रभ भावउ = प्रभु को अच्छा लगने लगूँ। नाना = नन्हा, छोटा सा, निमाणा। होइ = हो के। बुलावउ = मैं बुलाता हूँ।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे मन! मैं नीचों से भी नीच हो के, बहुत छोटा हो के, निमाणा हो के, गरीब बन के, अपने प्रभ के आगे अरजोई करता रहता हूँ, (ता कि) जैसे भी हो सके मैं अपने उस प्रभु को अच्छा लगने लग जाऊँ।1। रहाउ।

अनिक अड्मबर माइआ के बिरथे ता सिउ प्रीति घटावउ ॥ जिउ अपुनो सुआमी सुखु मानै ता महि सोभा पावउ ॥१॥

पद्अर्थ: अडंबर = पसारे। बिरथे = व्यर्थ। ता सिउ = उन से। घटावउ = मैं घटाता हूँ। मानै = मानता है। पावउ = मैं पाता हूँ।1।

अर्थ: हे मेरे मन! माया के ये अनेक पसारे व्यर्थ हैं (क्योंकि इनसे साथ टूट जाना है), मैं इनसे अपना प्यार घटाए जा रहा हूँ, (मैं यही समझता हूँ कि) जैसे मेरा अपना मालिक प्रभु सुख मानता है, मैं भी उसी में (सुख मान के) इज्जत प्राप्त करता हूँ।1।

दासन दास रेणु दासन की जन की टहल कमावउ ॥ सरब सूख बडिआई नानक जीवउ मुखहु बुलावउ ॥२॥५॥

पद्अर्थ: रेणु = चरण धूल। कमावउ = मैं कमाता हूँ। जीवउ = मैं आत्मिक जीवन हासिल करता हूँ। मुखहु = मुँह से। बुलावउ = मैं बुलाता हूँ।2।

अर्थ: हे नानक! (कह:) मैं अपने दासों के दासों की चरण-धूल मांगता हूँ, मैं प्रभु के सेवकों की सेवा करता हूँ, सारे सुख सारे बड़प्पन मैं इसी में ही समझता हूँ। जब मैं अपने प्रभु को मुँह से बुलाता हूँ मैं आत्मिक जीवन हासिल कर लेता हूँ।2।5।

देवगंधारी ॥ प्रभ जी तउ प्रसादि भ्रमु डारिओ ॥ तुमरी क्रिपा ते सभु को अपना मन महि इहै बीचारिओ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: तउ प्रसादि = तव प्रसादि, तेरी कृपा से। भ्रमु = भटकना। डारिओ = दूर कर दी। ते = से। सभु को = हरेक जीव। इहै = यह ही।1। रहाउ।

अर्थ: हे प्रभु जी! तेरी मेहर से मैंने अपने मन की भटकना दूर कर ली है, तेरी कृपा से मैंने अपने मन में ये इरादा कर लिया है कि (तेरा पैदा किया हुआ) हरेक प्राणी मेरा अपना ही है।1। रहाउ।

कोटि पराध मिटे तेरी सेवा दरसनि दूखु उतारिओ ॥ नामु जपत महा सुखु पाइओ चिंता रोगु बिदारिओ ॥१॥

पद्अर्थ: कोटि = करोड़ों। पराध = अपराध, पाप। दरसनि = दर्शन से। उतारिओ = उतार लिया है। बिदारिओ = नाश कर लिया है।1।

अर्थ: हे प्रभु! तेरी सेवा भक्ति करने से मेरे (पहले किए हुए) करोड़ों ही पाप मिट गए हैं, तेरे दर्शनों से मैंने (अपने अंदर के हरेक) दुख दूर कर लिए हैं। तेरा नाम जपते हुए मैंने बड़ा आनंद लिया है, और, चिन्ता रोग (अपने मन में से) हटा दिया है।1।

कामु क्रोधु लोभु झूठु निंदा साधू संगि बिसारिओ ॥ माइआ बंध काटे किरपा निधि नानक आपि उधारिओ ॥२॥६॥

पद्अर्थ: साधू संगि = गुरु की संगति में। बिसारिओ = भुला लिया है। बंध = बंधन। किरपा निधि = हे कृपा के खजाने! उधारिओ = बचा लिया है।2।

अर्थ: हे प्रभु! गुरु की संगति में टिक के मैंने काम, क्रोध, लोभ, झूठ, निंदा (आदि विकारों को अपने मन में से) भुला लिया है। हे नानक! (कह:) हे कृपा के खजाने प्रभु! तूने मेरे माया के बंधन काट दिए हैं, तूने खुद ही मुझे (संसार समुंदर में से) बचा लिया है।2।6।

देवगंधारी ॥ मन सगल सिआनप रही ॥ करन करावनहार सुआमी नानक ओट गही ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मन = हे मन! सिआनप = चतुराई। रही = खत्म हो जाती है। करन करावनहार = खुद ही सब कुछ करने और जीवों से करवाने की ताकत रखने वाला। ओट = आसरा। गही = पकड़ी।1। रहाउ।

अर्थ: हे नानक! (कह:) हे मेरे मन! जो मनुष्य सब कुछ कर सकने और सब कुछ (जीवों से) करा सकने वाले परमात्मा मालिक का आसरा लेता है उसकी (अपनी) सारी चतुराई खत्म हो जाती है।1। रहाउ।

आपु मेटि पए सरणाई इह मति साधू कही ॥ प्रभ की आगिआ मानि सुखु पाइआ भरमु अधेरा लही ॥१॥

पद्अर्थ: आपु = स्वै भाव। मेटि = मिटा के। साधू गही = साधु की बताई हुई। मानि = मान के। लही = दूर हो जाती है।1।

अर्थ: हे मेरे मन! गुरु की बताई हुई यह (अपनी चतुराई-समझदारी छोड़ देने वाली) शिक्षा जिस मनुष्यों ने ग्रहण की, और, जो स्वैभाव मिटा के प्रभु की शरण आ पड़े, उन्होंने प्रभु की रजा मान के आत्मिक आनंद पाया, उनके अंदर से भ्रम (-रूपी) अंधकार दूर हो गया।1।

जान प्रबीन सुआमी प्रभ मेरे सरणि तुमारी अही ॥ खिन महि थापि उथापनहारे कुदरति कीम न पही ॥२॥७॥

पद्अर्थ: जान = हे सुजान! प्रबीन = प्रवीण, हे माहिर! अही = मांगी है, आया हूँ। उथापनहारे = हे नाश करने की ताकत रखने वाले! कुदरति = ताकत। कीम = कीमत। नही = पड़ती।2।

अर्थ: हे सुजान और समझदार मालिक! हे मेरे प्रभु! मैं तेरी शरण आया हूँ। हे एक छिन में पैदा करके नाश करने की ताकत रखने वाले प्रभु! (किसी तरफ से भी) तेरी ताकत का मूल्य नहीं पड़ सकता।1।7।

देवगंधारी महला ५ ॥ हरि प्रान प्रभू सुखदाते ॥ गुर प्रसादि काहू जाते ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: प्रान दाते = हे जीवन देने वाले! सुखदाते = हे सुख देने वाले! प्रसादि = कृपा से। काहू = किसी विरले ने। जाते = तेरे साथ गहरी सांझ डाली।1। रहाउ।

अर्थ: हे जीवन देने वाले हरि! हे सुख देने वाले प्रभु! किसी विरले मनुष्य ने गुरु की कृपा से तेरे साथ गहरी सांझ डाल ली है।1। रहाउ।

संत तुमारे तुमरे प्रीतम तिन कउ काल न खाते ॥ रंगि तुमारै लाल भए है राम नाम रसि माते ॥१॥

पद्अर्थ: प्रीतम = हे प्रीतम! काल = आत्मिक मौत। ना खाते = नहीं खा जाती। रंगि = प्रेम रंग में। लाल = चाव भरे। रसि = रस में। माते = मस्त।1।

अर्थ: हे प्रीतम प्रभु! जो तेरे संत तेरे ही बने रहते हैं, आत्मिक मौत उनके स्वच्छता भरे जीवन को समाप्त नहीं कर सकती। हे प्रभु! वह तेरे संत तेरे प्रेम रंग में लाल हुए रहते हैं, वह तेरे नाम-रस में मस्त रहते हैं।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh