श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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भरमे भूली रे जै चंदा ॥ नही नही चीन्हिआ परमानंदा ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: रे = हे भाई! नही नही = बिल्कुल नहीं। चीन्हिआ = पहचाना। परमानंद = सबसे श्रेष्ठ आनंद के मालिक प्रभु को।1। रहाउ।

अर्थ: हे जै चंद! सारी दुनिया (इसी भुलेखे में) भूली पड़ी है (कि निरा फकीरी भेस धारण करने से परमात्मा मिल जाता है, पर ये गलत है, इस तरह परमानंद प्रभु की समझ कभी भी नहीं पड़ती।1। रहाउ।

घरि घरि खाइआ पिंडु बधाइआ खिंथा मुंदा माइआ ॥ भूमि मसाण की भसम लगाई गुर बिनु ततु न पाइआ ॥२॥

पद्अर्थ: घरि घरि = हरेक घर में, हरेक घर से, घर घर से। पिंडु = शरीर। बधाइआ = मोटा कर लिया। खिंथा = गोदड़ी। मसाण भूमि = वह धरती जहाँ मुर्दे जलाए जाते हैं। भसम = राख। ततु = असलियत।2।

अर्थ: (जिस मनुष्य ने) घर घर से (माँग के टुकड़े) खा लिए, (अपने) शरीर को अच्छा पाल लिया, गोदड़ी पहन ली, मुंद्रें भी पहन लीं, (पर सब कुछ) माया की खातिर ही (किया), मसाणों की धरती की राख भी (शरीर पे) मल ली, पर अगर वह गुरु के राह पर नहीं चला तो इस तरह तत्व की प्राप्ति नहीं होती।2।

काइ जपहु रे काइ तपहु रे काइ बिलोवहु पाणी ॥ लख चउरासीह जिन्हि उपाई सो सिमरहु निरबाणी ॥३॥

पद्अर्थ: काइ = किस लिए? जपहु = जप करते हो। रे = हे भाई! बिलोवहु = मथते हो। जिनि = जिस (प्रभु) ने। निरबाणी = वासना रहित प्रभु।3।

अर्थ: (हे भाई!) क्यों (गिन मिथ के) जाप करते हो? क्यों तप साधते हो? किसलिए पानी में मथानी चला रहे हो? (हठ के साथ किए हुए ये साधन तो पानी में मथानी चलाने के समान हैं); उस वासना-रहित प्रभु को (हर वक्त) याद करो, जिसने चौरासी लाख (जोनि वाली सृष्टि) पैदा की है।3।

काइ कमंडलु कापड़ीआ रे अठसठि काइ फिराही ॥ बदति त्रिलोचनु सुनु रे प्राणी कण बिनु गाहु कि पाही ॥४॥१॥

पद्अर्थ: कमंडलु = (संस्कृत: कमण्डल) मिट्टी व लकड़ी का प्याला आदि साधु लोग पानी पीने के लिए पास रखते हैं, पत्थर। कापड़ीआ = टाकियों की बनी हुई गोदड़ी पहनने वाला। कण = अन्न के दाने। रे = हे भाई! हे जै चंद! अठसठि = अढ़सठ तीर्थ। बदति = कहता है। कण = दाने। कि = किसलिए?।4।

अर्थ: हे टाकियाँ लगे कपड़े पहनने वाले! (हाथ में) खप्पर पकड़ने का कोई लाभ नहीं। अढ़सठ तीर्थों पर भटकने का भी कोई लाभ नहीं। त्रिलोचन कहता है: हे बंदे! सुन; अगर (अनाज रखने वाली भरियों में) अनाज के दाने नहीं, तो उसकी गहराई नापने का भी कोई लाभ नहीं।4।1।

गूजरी ॥ अंति कालि जो लछमी सिमरै ऐसी चिंता महि जे मरै ॥ सरप जोनि वलि वलि अउतरै ॥१॥

पद्अर्थ: अंति कालि = अंत के समय, मरने के वक्त। लछमी = माया, धन। सिमरै = याद रखता है। वलि वलि = बार बार। अउतरै = पैदा होता है।1।

अर्थ: अगर मनुष्य मरने के वक्त धन-पदार्थ याद करता है और इस सोच में ही मर जाता है तो वह मुड़ मुड़ के साँप की जोनि में पड़ता है।1।

अरी बाई गोबिद नामु मति बीसरै ॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: अरी बाई = हे बहन! मति = मत कहीं, ना। रहाउ।

अर्थ: हे बहन! (मेरे लिए अरदास कर) मुझे कभी परमात्मा का नाम ना भूले (ता कि अंत समय भी वही परमात्मा याद आए)। रहाउ।

अंति कालि जो इसत्री सिमरै ऐसी चिंता महि जे मरै ॥ बेसवा जोनि वलि वलि अउतरै ॥२॥

अर्थ: जो मनुष्य मरने के समय (अपनी) स्त्री को ही याद करता है और इसी याद में प्राण त्याग देता है, वह मुड़ मुड़ के वेश्वा का जनम लेता है।2।

अंति कालि जो लड़िके सिमरै ऐसी चिंता महि जे मरै ॥ सूकर जोनि वलि वलि अउतरै ॥३॥

पद्अर्थ: सूकर = सूअर।3।

अर्थ: जो मनुष्य अंत के समय (अपने) पुत्रों को ही याद करता है और पुत्रों को याद करता-करता ही मर जाता है, वह बार बार सूअर की जोनि में पैदा होता है।3।

अंति कालि जो मंदर सिमरै ऐसी चिंता महि जे मरै ॥ प्रेत जोनि वलि वलि अउतरै ॥४॥

अर्थ: जो मनुष्य आखिरी समय में (अपने) घर महल-माढ़ियों के हाहुके भरता है और इसी चिन्ता में अपने प्राण त्याग देता है, वह बार-बार प्रेत बनता है।4।

अंति कालि नाराइणु सिमरै ऐसी चिंता महि जे मरै ॥ बदति तिलोचनु ते नर मुकता पीत्मबरु वा के रिदै बसै ॥५॥२॥

पद्अर्थ: बदति = कहता है। मुकता = माया के बंधनों से आजाद। पीतंबरु = (पीत+अंबर) पीले कपड़ों वाला कृष्ण, परमात्मा। वा के = उस के।5।

अर्थ: त्रिलोचन कहता है: जो मनुष्य अंत के समय परमात्मा को याद करता है और इस याद में टिका हुआ ही शरीर त्यागता है, वह मनुष्य (धन, स्त्री, पुत्र और घर आदि के मोह से) आजाद हो जाता है, उसके हृदय में परमात्मा खुद आ के बसता है।5।2।

नोट: भक्त-वाणी के विरोधी सज्जन त्रिलोचन जी के इन दोनों शबदों के बारे में यूँ लिखते हैं: “गूजरी राग वाला शब्द किसी जैचंद नाम के उदासी के साथ चर्चा का है। राग गूजरी के दोनों शब्द पौराणिक मत के लेखों के अनुसार कर्मों पर विचार है; जैसे कि ‘अंत कालि जो लक्ष्मी सिमरै’। भक्त जी ने पता नहीं कैसे अंदाजा लगाया कि इस तरह करने वाला इस जूनि में जाएगा। करते की बातें करता ही जान सकता है। इसी राग का दूसरा शब्द ‘नाराइण निंदसि काइ भूली गवारी’ वाला है।”

ऐसा प्रतीत होता है कि विरोधी भाई साहब ने भक्तों की वाणी के विरोध में कुछ ना कुछ लिखने की कसम खाई हुई है। कई जगह तो साफ-साफ दिखता है कि विरोध करने वाले ने शबदों को ध्यान से पढ़ने की जरूरत भी नहीं समझी। यहीं देख लें। गूजरी राग में त्रिलोचन जी का ‘नाराइण निंदसि काइ भूली गवारी’ वाला शब्द नहीं है। और, पहले लिखते हैं कि गूजरी राग के दोनों शब्द कर्मां पर विचार हैं। त्रिलोचन जी का पहला शब्द ‘अंतर मलि, निरमलु नही कीना’ ध्यान से पढ़ के देखें। यहाँ कर्मों के बारे में कोई जिक्र नहीं है। सारे शब्द में भेस का खण्डन किया गया है, और परमात्मा के साथ जान-पहचान का जोर दिया गया है। यही आशय है गुरमति का। पर, ये महोदय लिखते हैं, “भक्त जी के पाँचों शब्द गुरमति के किसी आशय का प्रचार नहीं करते।”

अब रहा गूजरी राग में भक्त जी का दूसरा शब्द। इस बारे में विरोधी महोदय ऐतराज करते हुए लिखते हैं;

यहाँ पौराणिक मत के अनुसार कर्मों पर विचार की गई है। भक्त जी ने कैसे अंदाजा लगाया कि इस तरह करने वाला इस जूनि में जाएगा।

ये बात बड़ी सीधी सी है। शायद महोदय ध्यान देने में चूक कर गए। भक्त त्रिलोचन जी खुद ब्राहमण जाति से थे। और, इस शब्द के माध्यम से हिन्दू भाईयों को शिक्षा दे रहे हैं। हिंदुओं में हिंदू धर्म के पुराण-शास्त्रों वाले विचार कुदरती तौर पर प्रचलित थे। जूनियों में पड़ने के बारे में जो ख्याल आम हिंदू जनता में चले हुए थे उनका ही हवाला दे के त्रिलोचन जी समझा रहे हैं कि सारी उम्र धन, स्त्री पुत्र व महल माढ़ियों के धंधों में ही इतना खचित ना रहो कि मरने के वक्त भी तवज्जो इनमें ही टिकी रहे। गृहस्थ जीवन की जिम्मेवारियां इस तरीके से निभाओ कि काम-काज करते हुए भी ‘अरी बाई, गोबिंद नामु मति बीसरै’; ता कि अंत समय धन, स्त्री, पुत्र, महल-माढ़ियों में तवज्जो भटकने की बजाए मन प्रभु के चरणों में जुड़े। सो, भक्त जी ने कोई अंदाजा नहीं लगाया, हिन्दू जनता में ही प्रचलित ख्यालों को उन्होंने सामने रख के उनको ही सही जीवन का रास्ता बता रहे हैं।

हमारे महोदय ने बड़ी जल्दबाजी में ये टोक कर दी है। वरना ये बात वैसी ही है, जैसे मुसलमानों को समझाने के लिए सतिगुरु नानक देव जी ने नीचे लिखे शलोक के द्वारा उनमें चले आ रहे ख्याल का हवाला दे के ईश्वर की ‘बही’ (हिसाब-किताब लिखने वाली पुस्तक) का जिक्र किया है;

“नानक आखै रे मना, सुणीअै सिख सही।
लेखा रबु मंगेसीआ, बैठा कढि वही।”।2।13। (सलोक म: १, रामकली की वार म: ३)


गूजरी स्री जैदेव जीउ का पदा घरु ४    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

परमादि पुरखमनोपिमं सति आदि भाव रतं ॥ परमदभुतं परक्रिति परं जदिचिंति सरब गतं ॥१॥

पद्अर्थ: परमादि = परम+आदि। परम = सबसे ऊँचा। आदि = (सब का) आरम्भ। पुरखमनोपिमं = पुरखं+अनोपिमं (पुरुषं+अनुपिमं)। पुरख = सर्व व्यापक। अनोपिम = अन+उपम, जिस जैसा कोई नहीं। सति = सदा स्थिर रहने वाला। आदि = आदिक। भाव = गुण। रतं = संयुक्त, रति हुआ। सति आदि भाव रतं = जिसमें स्थिरता आदि गुण मौजूद हैं। परमदभुतं = परं+अदभुतं। परं = बहुत ही। अदभुत = आश्चर्य। परक्रिति = प्रकृति, माया। परक्रिति परं = माया से पार। जदिचिंति = जद+अचिंति (यत्+अचिंत्य)। जद = जो। अचिंति = (अचिन्त्य incomprehensible) जिसका मुकम्मल स्वरूप सोच मण्डल में नहीं आ सकता। सरब गतं = जो और जगह पहुँचा हुआ है।1।

अर्थ: वह परमात्मा सबसे ऊँची हस्ती है, सबका मूल है, सब में व्यापक है, उस जैसा और कोई नहीं, उसमें स्थिरता आदि (सारे) गुण मौजूद हैं, वह प्रभु बहुत ही आश्चर्यजनक है, माया से परे है, उसका मुकम्मल स्वरूप सोच-मण्डल में नहीं आ सकता, और वह हर जगह पहुँचा हुआ है।1।

केवल राम नाम मनोरमं ॥ बदि अम्रित तत मइअं ॥ न दनोति जसमरणेन जनम जराधि मरण भइअं ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मनोरमं = मन को मोहने वाला, सुंदर। बदि = (वद् to utter) बोल, उचार। अंम्रित मइअं = अमृत से भरपूर, अमृत रूप। दनोति = (दु = to afflict, दुख देना) दुख देता है। जसमरणेन = (यस्य+स्मरणेन, जस = यस्य, जिस का। स्मरणेन = स्मरण करने से) जिस का स्मरण करने से। जराधि = जरा+आधि। जरा = बुढ़ापा। आधि = रोग। भइअं = भय, डर।1। रहाउ।

अर्थ: (हे भाई!) केवल परमात्मा का सुंदर नाम स्मरण कर, जो अमृत भरपूर है, जो अस्लियत रूप है, और जिसके स्मरण से जनम-मरण, बुढ़ापा, चिन्ता, फिक्र और मौत का डर दुख नहीं देता।1। रहाउ।

इछसि जमादि पराभयं जसु स्वसति सुक्रित क्रितं ॥ भव भूत भाव समब्यिअं परमं प्रसंनमिदं ॥२॥ लोभादि द्रिसटि पर ग्रिहं जदिबिधि आचरणं ॥ तजि सकल दुहक्रित दुरमती भजु चक्रधर सरणं ॥३॥

पद्अर्थ: इछसि = इच्छसि, जो तू चाहता है। जमादि = जम+आदि, यम आदि। पराभयं = (पराभवं। भ = to become. पराभु = to defeat) (किसी को) जीतना, (किसी को) मात देनी। जसु = यश, शोभा, बड़ाई। स्वसति = कल्याण, सुख। सुक्रित = भलाई, नेक काम। सुक्रित क्रितं = नेक काम करना। भव = अब वाला समय, वर्तमान। भूत = गुजर चुका समय। भाव = (भाव्य) आने वाला समय। समब्यिअं = सं+मब्यिअं {(संस्कृत: सं+अव्यवं) वय्यं = नाश। अव्यय = नाश रहित। सं-संपूर्ण} पूर्ण तौर पर नास-रहित। प्रसंनमिदं = प्रसंनं+इदं। इदं = ये (परमात्मा)।2।

लोभादि = लोभ+आदि। द्रिसटि = नजर। ग्रिह = घर। पर = पराया। जदिबिधि = जद+अबिधि (यत्+अविधि)। जद = (यत्) जो। अबिधि = अ+बिधि, विधि के उलट, मर्यादा के विरुद्ध, बुरा। अबिधि आचरन = बुरा आचरण। तजि = छोड़ दे। सकल = सारे। दुहक्रित = दुह+क्रित, बुरे काम। दुरमती = बुरी मति। भजु = जाओ। चक्रधर = चक्रधारी, सुदर्शन चक्रधारी, वह प्रभु जिसके हाथ में सुदर्शन चक्र है, वह प्रभु जो सबको नाश भी कर सकता है।3।

अर्थ: (हे भाई!) अगर तू यम आदि को जीतना चाहता है, अगर तू शोभा और सुख चाहता है तो लोभ आदि (विकार) छोड़ दे, पराए घर की ओर देखना छोड़ दे, वह आचरण त्याग दे जो मर्यादा के उलट है सारे बुरे काम छोड़ दे, दुर्मति त्याग दे, और उस प्रभु की शरण पड़ जो सबको नाश करने के समर्थ है, जो अब पिछले समय और आगे के लिए सदा ही पूर्ण तौर पर नाश-रहित है जो सबसे ऊँची हस्ती है, और जो सदा खिला रहता है।2,3।

हरि भगत निज निहकेवला रिद करमणा बचसा ॥ जोगेन किं जगेन किं दानेन किं तपसा ॥४॥

पद्अर्थ: हरि भगत निज = हरि के निज भक्त, प्रभु के अपने भक्त, प्रभु के प्यारे भक्त। निहकेवल = (निस्+केवल्य) पूर्ण तौर पर पवित्र। करमणा = कर्मणा, in action। बचसा = वचन से (in word)। किं = क्या लाभ है?।

नोट: संस्कृत शब्द ‘कर्मन्’ से कर्मणा, कर्ण कारक instrumental case एकवचन है, कर्म से, करतूत से।

नोट: ‘बचसा’ बारे में। संस्कृत के शब्द ‘वचस्’ से ‘वचसा’ कर्ण कारक एकवचन।

नोट: जब संस्कृत शब्द ‘किं’ का अर्थ हो ‘इसका क्या लाभ है? कोई लाभ नहीं’ तो जिस शब्द के साथ ये इस्तेमाल होता है उसको कर्ण कारक instrumental case में लिखते हैं। तभी जोगेन, जगेन, दानेन और ‘तपसा’ कर्ण कारक में प्रयोग किए गए हैं।

तपसा = तप से। तपसा किं = तप से क्या लाभ? तप करने से कोई लाभ नहीं।4।

नोट: शब्द ‘वचसा’ की तरह ‘तपसा’ भी कर्ण कारक एकवचन है, असल शब्द है ‘तपस्’।

अर्थ: परमात्मा के प्यारे भक्त मन, वचन और कर्म से पवित्र होते हैं। (भाव, भगतों का मन पवित्र, बोल पवित्र और कर्म भी पवित्र होते हैं); उन्हें योग से क्या वास्ता? उनका यज्ञ से क्या प्रयोजन? उन्हें दान व तप से क्या? (भाव, भक्त जानते हैं कि योग-साधना, यज्ञ, दान और तप करने से कोई आत्मिक लाभ नहीं हो सकता, प्रभु की भक्ति ही असल करणी है)।4।

गोबिंद गोबिंदेति जपि नर सकल सिधि पदं ॥ जैदेव आइउ तस सफुटं भव भूत सरब गतं ॥५॥१॥

पद्अर्थ: गोबिंदेति = गोबिंद+इति। इति = ये, यूँ। नर = हे नर! सकल सिधि पदं = सारी सिद्धियों का ठिकाना। तस = तस्य, उसकी (शरण)। सफुटं = प्रत्यक्ष तौर पर, खुल्लम खुल्ला।5।1।

अर्थ: हे भाई! गोबिंद का भजन कर, गोबिंद को जप, वही सारी सिद्धियों का खजाना है। जैदेव भी और आसरे त्याग के उसकी शरण आया है, वह अब भी, पिछले समय में भी (आगे को भी) हर वक्त हर जगह मौजूद है।5।1।

नोट: भक्त जैदेव जी का ये शब्द गूजरी राग में है। इसी राग के आरंभ में गुरु नानक देव जी का एक शब्द है। दोनों को आमने-सामने रख के पढ़ें तो प्रत्यक्ष प्रतीत होता है कि शब्द उच्चारण के समय गुरु नानक साहिब जी के सामने जैदेव जी का ये शब्द मौजूद था। गुरु नानक देव जी वह शब्द नीचे दिया जा रहा है;

गूजरी महला १ घरु ४॥

भगति प्रेम अराधितं, सचु पिआस परम हितं॥ बिललाप बिलल बिनंतीआ, सुख भाइ चित हितं॥१॥ जपि मन नामु हरि सरणी॥ संसार सागर तारि तारण, रम नाम करि करणी॥१॥ रहाउ॥ ए मन मिरत सुभ चिंतं, गुर सबदि हरि रमणं॥ मति ततु गिआनं, कलिआण निधानं, हरि नाम मनि रमणं॥२॥ चल चित वित भ्रमा भ्रमं जगु मोह मगन हितं॥ थिरु नामु भगत दिढ़ं मती, गुर वाकि सबद रतं॥३॥ भरमाति भरमु न चूकई, जगु जनमि बिआधि खपं॥ असथानु हरि निहकेवलं, सति मती नाम तपं॥४॥ इहु जगु मोह हेत बिआपितं, दुखु अधिक जनम मरणं॥ भजु सरणि सतिगुर ऊबरहि, हरि नामु रिद रमणं॥५॥ गुरमति निहचल मनि मनु मनं सहज बीचारं॥ सो मनु निरमलु, जितु साचु अंतरि, गिआन रतनु सारं॥६॥ भै भाइ भगति तरु भवजलु मना, चितु लाइ हरि चरणी॥ हरि नामु हिरदै पवित्रु पावनु, इहु सरीरु तउ सरणी॥७॥ लब लोभ लहरि निवारं, हरि नाम रासि मनं॥ मनु मारि तुही निरंजना, कहु नानक सरनं॥८॥१॥५॥

कई बातों में ये शब्द आपस में मिलते-जुलते हैं;

1. दोनों शब्द ‘घरु ४’ में हैं।

2. सुर में दोनों को पढ़ के देखें दोनों की चाल एक जैसी ही है।

3. दोनों की बोली भी तकरीबन एक जैसी ही है।

4. कई शब्द दोनों शबदों में सांझे हैं।

दोनों शबदों की इस गहरी समानता से अंदाजा यही लगता है कि जब गुरु नानक देव जी अपनी पहली उदासी में (सन् 1508 से सन् 1515 तक) सारे हिन्दू तीर्थों पर गए तो भक्त जैदेव जी की जनम-नगरी भी पहुँचे। वहाँ भक्त जी का ये शब्द मिला; इसे अपने आशय अनुसार देख के इसकी प्रति अपने पास रख ली और इसी रंग-ढंग का शब्द अपनी तरफ से उचार के इस शब्द के साथ पक्की गहरी सांझ बना ली।

कई सज्जनों का ख्याल है कि भक्तों की वाणी गुरु अरजन साहिब ने इकट्ठी की थी। पर जहाँ तक इस शब्द का संबंध है, ये शब्द हर हालत में गुरु नानक देव जी खुद भक्त जैदेव जी की जन्म-भूमि से ले के आए थे; यही कारण है कि इन दोनों शबदों में इतनी नजदीकी सांझ है।

नोट: भक्त वाणी का विरोधी-सज्जन इस शब्द के बारे में लिखता है कि इस शब्द के अंदर विष्णु-भक्ति का उपदेश है। ये अंदाजा उसने शब्द ‘चक्रधर’ से लगाया प्रतीत होता है। पर बाकी के शब्द पढ़ के देखें। ‘रहाउ’ वाली तुक में ही भक्त जी कहते हैं ‘केवल राम नाम मनोरमं। बदि अंम्रित तत मइअं’। और, ‘रहाउ’ की तुकों में दिए हुए विचार की ही व्याख्या सारे शब्द में हुआ करती है। इसी ‘राम नाम’ वास्ते जैदेव जी शब्द के बाकी बंदों में निम्न-लिखित शब्दों का प्रयोग करते हैं: परमादि पुरख, अनोपिम, परम-अदभुत, परक्रिति-पर, चक्रधर, हरि, गोबिंद, सरब-गत। स्पष्ट है कि सर्व-व्यापक अकाल पुरख की भक्ति का उपदेश कर रहे हैं।

इसी शब्द के साथ गुरु अरजन साहिब का नीचे लिखा शब्द भी मिल के पढ़ें, कैसी मजेदार सांझ सामने आती है, और भक्त जी के शब्द से डरने वाली कोई गुंजाइश नहीं रह जाती।

गूजरी महला ५ घरु ४

नाथ नरहर दीन बंधव, पति पावन देव। भैत्रासनास क्रिपाल गुणनिधि, सफल सुआमी सेव॥१॥ हरि गोपाल गुर गोबिंद। चरण सरण दइआल केसव, मुरारि मन मकरंद। जनम मरन निवारि धरणीधर, पति राखु परमानंद।2। जलत अनत तरंग माइआ, गुर गिआन हरि रिद मंत। छेदि अहंबुधि करुणामै, चिंत मेटि पुरख अनंत।3।.....

धनाढि आढि भंडार हरि निधि, होत जिना न चीर। मुगध मूढ़ कटाख् श्रीधर, भऐ गुण मति धीर।6।....

देत दरसनु स्रवन हरि जसु, रसन नाम उचार। अंग संग भगवान परसन प्रभ नानक पतित उधार।8।1।2।5।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh