श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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पउड़ी ॥ निंदक मारे ततकालि खिनु टिकण न दिते ॥ प्रभ दास का दुखु न खवि सकहि फड़ि जोनी जुते ॥ मथे वालि पछाड़िअनु जम मारगि मुते ॥ दुखि लगै बिललाणिआ नरकि घोरि सुते ॥ कंठि लाइ दास रखिअनु नानक हरि सते ॥२०॥

पद्अर्थ: ततकालि = उसी वक्त। न खवि सकहि = सह नहीं सकते। जुते = जो दिए, पहन दिए। मथे वालि = माथे के बालों से (पकड़ के)। पछाड़िअनु = पछाड़े हैं उस प्रभु ने, जमीन पर पटका के मारे हैं उसने। जम मारगि = जम के राह पर। मुते = छोड़ दिए हैं। दुखि लगै = दुख लगने के कारण। नरकि घोरि = घोर नर्क में, डरावने नर्क में। सुते = जा पड़े। रखिअनु = रख लिए हैं उस (प्रभु) ने। सते = सति, सच्चा।20।

नोट: ‘दुखि’ है अधिकरण कारक, एकवचन)। ‘लगै’ है पूरब पूरन कारदंतक, Locative Absolute.

अर्थ: जो मनुष्य (गुरमुखों की) निंदा करते हैं उनको तो प्रभु ने (मानो) उसी वक्त मार दिए, (क्योंकि निंदा के कारण प्रभु ने उनके मन को) एक पलक भर भी शांति नहीं करने दी, प्रभु जी अपने दासों का दुख सह नहीं सकते (भाव) प्रभु की भक्ति करने वालों को कोई दुख-विकार नहीं सताता। पर, निंदकों को प्रभु ने जूनियों में डाल दिया है, (निंदकों को, मानो) उसने केसों से पकड़ के जमीन पे पटका के मारा है और जम के राह पर निरआसरा ही छोड़ दिया है; इस तरह दुख लगने के कारण वह बिलकते हैं, और मानो, घोर नर्क में पड़ते हैं।

पर हे नानक! सच्चे प्रभु ने अपने सेवकों को (विकारों दुखों से, मानो) गले से लगा के बचा लिया है।20।

सलोक मः ५ ॥ रामु जपहु वडभागीहो जलि थलि पूरनु सोइ ॥ नानक नामि धिआइऐ बिघनु न लागै कोइ ॥१॥

नोट: इसी वार की 14वीं पौड़ी के दूसरे शलोक और इस शलोक में बहुत ही थोड़ा सा फर्क है।

पद्अर्थ: पुरनु = व्यापक। नामि धिआइऐ = अगर नाम स्मरण किया जाए।1।

नोट: ‘नामि’ है अधिकरण कारक, एकवचन।

अर्थ: हे बड़े भाग्य वालो! उस प्रभु को जपो जो पानी में, धरती पर (हर जगह) मौजूद है; हे नानक! अगर प्रभु का नाम स्मरण करें तो (जीवन के राह में) कोई रुकावट नहीं पड़ती।1।

मः ५ ॥ कोटि बिघन तिसु लागते जिस नो विसरै नाउ ॥ नानक अनदिनु बिलपते जिउ सुंञै घरि काउ ॥२॥

नोट: इसी ‘वार’ की पउड़ी नं: 15 के साथ पहला शलोक यही है।

अर्थ: जिस मनुष्य को परमात्मा का नाम बिसर जाता है उसको करोड़ों बिघन आ घेरते हैं; हे नानक! (ऐसे लोग) हर रोज यूँ बिलकते हैं जैसे सूने घर में कौआ पुकारता है।2।

पउड़ी ॥ सिमरि सिमरि दातारु मनोरथ पूरिआ ॥ इछ पुंनी मनि आस गए विसूरिआ ॥ पाइआ नामु निधानु जिस नो भालदा ॥ जोति मिली संगि जोति रहिआ घालदा ॥ सूख सहज आनंद वुठे तितु घरि ॥ आवण जाण रहे जनमु न तहा मरि ॥ साहिबु सेवकु इकु इकु द्रिसटाइआ ॥ गुर प्रसादि नानक सचि समाइआ ॥२१॥१॥२॥ सुधु

पद्अर्थ: पुंनी = पूरी हो गई। मनि = मन में। विसूरिआ = विसूरे, झोरे। रहिआ = रह गया, हट गया। रहिआ घालदा = मेहनत की जरूरत ना रही। तितु घरि = उस (हृदय रूपी) घर में। मरि = मरी, मौत। द्रिसटाइआ = नजर आया। सचि = सच्चे हरि में।21।

अर्थ: सब दातें देने वाले परमात्मा को स्मरण कर-कर के (मन के) उद्देश्य पूरे हो जाते हैं मन में उठतीं आशाएं और इच्छाएं पूरी हो जाती हैं, और (दुनियावी) दुख-चिंताएं झोरे मिट जाते हैं (क्योंकि नाम-जपने की इनायत से ‘माया’ की तलाश मिट जाती है, आशा-तृष्णा समाप्त हो जाती है, इसकी जगह) जिस ‘नाम’-खजाने की तलाश में लगता है वह इसे प्राप्त हो जाता है, मनुष्य की आत्मा प्रभु की ज्योति में लीन हो जाती है और (माया की खातिर) दौड़-भाग भटकना रह जाती है।

(जो मनुष्य नाम-जपने की कमाई करता है) उस (के) हृदय-घर में सुख, अडोलता, खुशी आ बसते हैं, उसके जनम-मरण समाप्त हो जाते हैं, वहाँ जनम और मौत नहीं रह जाते, क्योंकि (इस अवस्था में पहुँचते हुए) सेवक और मालिक प्रभु एक-रूप नजर आते हैं। हे नानक! (ऐसा सेवक) सतिगुरु की कृपा से सदा-स्थिर रहने वाले प्रभु में लीन हो जाता है।21।1।2। सुधु।

नोट: अंक नं: 21 का भाव ये है कि इस ‘वार’ में 21 पौड़ियां हैं। अंक नं: 1 इस सारी समूची ‘वार’ की संख्या है। अंक नं: 2 इस ‘राग’ की दोनों ‘वारों’ का जोड़ दिया गया है। पहली ‘वार’ गुरु अमरदास जी की और ये दूसरी वार गुरु अरजन देव जी की है।

रागु गूजरी भगता की बाणी    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

स्री कबीर जीउ का चउपदा घरु २ दूजा ॥ चारि पाव दुइ सिंग गुंग मुख तब कैसे गुन गईहै ॥ ऊठत बैठत ठेगा परिहै तब कत मूड लुकईहै ॥१॥

पद्अर्थ: पाव = चरण, पाद। दुइ = दो। गईहै = गाएगा। गुन = प्रभु के गुण। ठेगा = डंडा। परिहै = पड़ेगा। कत = कहाँ? मूड = सिर। लुकई है = छुपाएगा।1।

नोट: ‘पाव’ है ‘पाउ’ का बहुवचन।

अर्थ: (हे भाई किसी पशु जूनि में पड़ के जब तेरे) चार पैर और दो सींग होंगे, और मुँह से गूँगा होगा, तब तू किस तरह प्रभु के गुण गा सकेगा? उठते बैठते (तेरे सिर पर) डंडा पड़ेगा, तब तू कहाँ सिर छुपाएगा?।1।

हरि बिनु बैल बिराने हुईहै ॥ फाटे नाकन टूटे काधन कोदउ को भुसु खईहै ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: बिराने = बिगाने, पराधीन। हुई है = होगा। फाटे = फटे हुए। काधन = कान, कंधे। भुसु = भूसा। खई है = खाएगा।1। रहाउ।

अर्थ: (हे भाई! प्रभु का स्मरण किए बिना) बैल (आदि पशु बन के) पराधीन हो जाएगा, (नथ से) नाक छेद दिया जाएगा, कान (जूले से) फिसे हुए होंगे और कोदरे की भूसी खाएगा।1। रहाउ।

सारो दिनु डोलत बन महीआ अजहु न पेट अघईहै ॥ जन भगतन को कहो न मानो कीओ अपनो पईहै ॥२॥

पद्अर्थ: महीआ = में। अघई है = तृप्त होगा, पेट भर लेगा। अजहु = फिर भी। कहो = कहा, सीखा। पई है = पड़ेगा।2।

अर्थ: जंगल (जूह) में सारा दिन भटकते हुए भी पेट नहीं भरेगा। अब इस वक्त तू भक्त जनों का वचन नहीं मानता, (उम्र बीत जाने पर) अपना किया पाएगा।2।

दुख सुख करत महा भ्रमि बूडो अनिक जोनि भरमईहै ॥ रतन जनमु खोइओ प्रभु बिसरिओ इहु अउसरु कत पईहै ॥३॥

पद्अर्थ: दुख सुख करत = दुख सुख करते हुए, बुरे हाल में दिन गुजार के। भ्रमि = भ्रम में। भरमई है = भटकेगा। अउसरु = मौका, समय। कत पई है = कहाँ मिलेगा? फिर नहीं मिलेगा।3।

अर्थ: अब बुरे हाल में दिन गुजार के गलत रास्ते पर गर्क हुआ पड़ा है, (आखिर) अनेक जूनियों में भटकेगा। तूने प्रभु को विसार दिया है, और श्रेष्ठ मनुखा जनम गवा लिया है, ये समय फिर कहीं नहीं मिलेगा।3।

भ्रमत फिरत तेलक के कपि जिउ गति बिनु रैनि बिहईहै ॥ कहत कबीर राम नाम बिनु मूंड धुने पछुतईहै ॥४॥१॥

नोट: घरु २ दूजा– यहाँ अंक 2 को पढ़ना है ‘दूजा’। इसी तरह और भी जहाँ जहाँ कहीं शब्द ‘घरु’ के कोई गिनती 3,4, 5 आदि आती है, वहाँ तीजा, चौथा, पँजवां पढ़ना है। चउपदा = (चउ = चार। पद = बंद) चार बंदों वाले शब्द।

पद्अर्थ: तेलक = तेली। कपि = बंदर। तेलक के कपि सिउ = तेलक के (बैल और) कपि जिउं, तेली के बैल की तरह और बंदर की तरह। तेली का बैल सारी रात कोल्हू के इर्द-गिर्द ही घूमता है, और उसका रास्ता खत्म नहीं होता। बंदर चनों की भरी मुठ के लालच में पकड़ा जा के सारी उम्र दर-दर पर नाचता है। गति बिनु = मुक्ति के बिना। रैनि = रात, जिंदगी रूपी रात। बिहई है = बीत जाएगी, समाप्त हो जाएगी। मूंड धुने = मूंड धुनि धुनि, सिर मार मार के। पछुतई है = पछताएगा।4।

अर्थ: तेरी जिंदगी रूपी सारी रात तेली के बैल और बंदर की तरह भटकती विकारों से मुक्ति के बिना ही गुजर जाएगी। कबीर कहता है कि प्रभु का नाम भुला के आखिर सिर मार मार के पछताएगा।4।1।

शब्द का भाव: मानव जनम ही स्मरण का समय है, गवा चुकने पर जनम-मरन के चक्र में पड़ना पड़ता है।

गूजरी घरु ३ ॥ मुसि मुसि रोवै कबीर की माई ॥ ए बारिक कैसे जीवहि रघुराई ॥१॥

पद्अर्थ: मुसि मुसि = ढुसक ढुसक के। माई = माँ। बारिक = अंजान बच्चे। रघुराई = हे प्रभु!।1।

अर्थ: कबीर की माँ (कबीर कहता है कि मेरी माँ) ढुसक-ढुसक के रोती है (और कहती है:) हे परमात्मा! (कबीर के) अंजान बच्चे कैसे जीएंगे?।1।

तनना बुनना सभु तजिओ है कबीर ॥ हरि का नामु लिखि लीओ सरीर ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: तजिओ है = छोड़ दिया है। लिखि लीओ सरीर = शरीर पर लिख लिया है, जीभ पर परो लिया है, हर वक्त उचारता रहता है।1। रहाउ।

अर्थ: (क्योंकि मेरे) कबीर ने (ताणा) तनना और (कपड़ा) बुनना सब कुछ छोड़ दिया है, हर वक्त हरि का नाम जपता रहता है।1। रहाउ।

जब लगु तागा बाहउ बेही ॥ तब लगु बिसरै रामु सनेही ॥२॥

पद्अर्थ: बेही = (संस्कृत: वेध, प्राकृत: बेह) छेद, साथ का छेद। बहाउ = बहाता है। सनेही = प्यारा।2।

अर्थ: जितने समय में मैं नाल के छेद में धागा बहाता हूँ, उतने वक्त में मुझे मेरा प्यारा प्रभु विसर जाता है (भाव, मुझे इतने समय के लिए भी प्रभु का विसरना अच्छा नहीं लगता)।2।

ओछी मति मेरी जाति जुलाहा ॥ हरि का नामु लहिओ मै लाहा ॥३॥

पद्अर्थ: ओछी = होछी, हल्की। लाहा = लाभ।3।

अर्थ: (क्या हुआ अगर लोगों के मुताबिक) मेरी तुच्छ अक्ल है और मैं जाति का (नीच गरीब) जुलाहा हूँ, पर मैं परमात्मा का नाम-रूपी लाभ (इस मानव जनम के व्यापार में) कमा लिया है (सो, मैं मूर्ख और नीच जाति का नहीं रह गया)।3।

कहत कबीर सुनहु मेरी माई ॥ हमरा इन का दाता एकु रघुराई ॥४॥२॥

पद्अर्थ: रघुराई = परमात्मा।4।

अर्थ: कबीर कहता है: हे मेरी माँ! सुन, हमारा और हमारे इन बच्चों का रिजक देने वाला एक ही परमात्मा है (भाव, अगर उसने मुझे पाला है, तो इनको भी जरूर पालेगा)।4।2।

नोट: कबीर जी की इस स्वै-घटित घटना से भाव ये निकलता है कि ‘भगता तै सैसारीआ जोड़ु कदे न आइआ’। दुनियादार तो हर वक्त माया कमाने में लगे रहना चाहता है; दूसरे, कमाई हुई को सिर्फ अपने ही लिए खर्चना चाहता है। भक्त अपनी गुजरान के लिए कमाता तो है, पर माया जोड़नी ही उसके जीवन का निशाना नहीं होता, उसका असल निशाना है ‘प्रभु की याद’ फिर, वह अपनी कमाई में से दूसरों की सेवा भी करता है। भक्त का ये रवईया उसके माता-पिता-पत्नी व और संबंधियों को नहीं भाता। इस कारण कमाते हुए भी वह उनको बेकाम का प्रतीत होता है, परमात्मा के राह की ओर की उसकी हरेक हरकत उनको चुभती है।

बिलावल व गौंड राग में भी कबीर जी के दो शब्द हैं, जिनसे जाहर होता है कि कबीर जी की पत्नी भी इसी बात के गिले-शिकवे करती थी।

नोट: अपनी माँ के गिले-शिकवे कबीर जी ने इस शब्द में बयान किए हैं, और फिर उनका उक्तर भी दिया है। ये ख्याल गलत है कि इस शब्द में कोई तुक कबीर जी की माँ की उचारी हुई हैं। महापुरखों की इस वाणी में दुनियादारों के कच्चे शब्द शामिल नहीं हो सकते।

शब्द का भाव: भक्त और दुनियादार की जिंदगी का निशाना अलग-अलग है। भक्त का असल निशाना है स्मरण; कमाता है गुजरान के लिए। दुनियादार का निशाना है हर वक्त माया कमानी और जोड़ते जाना।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh