श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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रागु गउड़ी गुआरेरी महला १ चउपदे दुपदे

ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु
अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥

भउ मुचु भारा वडा तोलु ॥ मन मति हउली बोले बोलु ॥ सिरि धरि चलीऐ सहीऐ भारु ॥ नदरी करमी गुर बीचारु ॥१॥

पद्अर्थ: भउ = प्रभु का डर, ये यकीन कि प्रभु मेरे अंदर बसता व सबमें बसता है। मुचु = बहुत। मन मति = मन के पीछे चलने वाली मति। हउली = हल्की, होछी। बोलु = होछा बोल। सिरि = सिर पे। धरि = धर के। चलीऐ = जीवन गुजारें। भारु = प्रभु के डर का भार। नदरी = प्रभु की (मेहर की) नजर से। करमी = प्रभु की बख्शिश से।1।

अर्थ: प्रभु का डर बहुत भारी है इसका तौल बड़ा है (भाव, जिस मनुष्य के अंदर प्रभु का डर अदब बसता है उसका जीवन ठोस व गंभीर बन जाता है)। जिसकी मति उसके मन के पीछे चलती है वह होछी रहती है। वह होछा ही वचन बोलता है। अगर प्रभु का डर सिर पर धर के (भाव, स्वीकार करके) जीवन गुजारें और उसके डर का भार सह सकें (भाव, प्रभु का डर अदब सुखदायी लगने लग पड़े) तो प्रभु के मेहर की नजर से प्रभु की बख्शिश से (मानवता बारे) गुरु की (बताई हुई) विचार (जीवन का हिस्सा बन जाती है)।1।

भै बिनु कोइ न लंघसि पारि ॥ भै भउ राखिआ भाइ सवारि ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: भै बिनु = प्रभु का डर (हृदय में रखने) के बिना। भै = प्रभु के डर में (रह के)। भाइ = प्रेम से। सवारि = सवार के, सजा के, सोहना बना के।1। रहाउ।

अर्थ: (संसार विकारों भरा एक ऐसा समुंदर है जिसमें परमातमा का) डर हृदय में बसाए बिना कोई पार नहीं गुजर सकता। (सिर्फ वही पार गुजरता है जिसने) प्रभु के डर में रह के और (प्रभु) प्यार के द्वारा (अपना जीवन) सवार के प्रभु का डर अदब (अपने हृदय में) टिका के रखा हुआ है (भाव, जिसने ये श्रद्धा बना ली है कि प्रभु मेरे अंदर और सबमें बसता है)।1। रहाउ।

भै तनि अगनि भखै भै नालि ॥ भै भउ घड़ीऐ सबदि सवारि ॥ भै बिनु घाड़त कचु निकच ॥ अंधा सचा अंधी सट ॥२॥

पद्अर्थ: तनि = तन में, शरीर में। अगनि = प्रभु को मिलने की आग, तमन्ना। भखै = भखती है, और तेज होती है। भै नालि = प्रभु का डर रखने से, ज्यों ज्यों इस यकीन में जीएं कि वह हमारे अंदर और सबके अंदर बसता है। भउ घढ़ीऐ = भउ रूप घाढ़त घढ़ी जाती है, प्रभु के डर में रहने का स्वभाव बनता जाता है। सवारि = सवार के। घाढ़त = जीवन की घाढ़त। कच = होछी, बेरसी। निकच = बिल्कुल होछी। सचा = सांचा, कलबूत जिसमें कोई नई चीज ढाली जाती है। सट = चोट, उद्यम। अंधा = अंधा, ज्ञानहीन, होछापन पैदा करने वाला।2।

अर्थ: प्रभु के डर-अदब में रहने से मनुष्य के अंदर प्रभु को मिलने की चाह टिकी रहती है। गुरु के शब्द के द्वारा (आत्मिक जीवन को) सुंदर बना के ज्यों ज्यों इस यकीन में जीएं कि प्रभु हमारे अंदर है और सबके अंदर मौजूद है, ये चाहत और तेज होती जाती है। प्रभु का डर अदब रखे बिना (हमारे जीवन का विकास) हमारे मन की घाढ़त होछी हो जाती है, बिल्कुल होछी बनती जाती है, (क्योंकि) जिस साँचे में जीवन ढलता है वह होछापन पैदा करने वाला होता है, हमारे यत्न भी अज्ञानता वाले ही होते हैं।2।

बुधी बाजी उपजै चाउ ॥ सहस सिआणप पवै न ताउ ॥ नानक मनमुखि बोलणु वाउ ॥ अंधा अखरु वाउ दुआउ ॥३॥१॥

नोट: अगर दो मनुष्यों के जीवन को तौलें; एक के अंदर प्रभु का डर और दूसरे के अंदर अपने मन की मति हो। पहले का जीवन गउरा गंभीर होगा, दूसरे का हल्के मेल का।

पद्अर्थ: बाजी = संसार खेल। चाउ = सांसारिक चाव। सहस = हजारों। पवै न ताउ = सेक नहीं पड़ता, असर नहीं होता, मन ढलता नहीं। वाउ = हवा जैसा। वाउ दुआउ = व्यर्थ फजूल।3।

अर्थ: हे नानक! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य की बुद्धि जगत-खेल में लगी रहती है। (जगत तमाशों का ही) चाव उसके अंदर पैदा होता रहता है। मनमुख चाहे हजारों अच्छाईआं भी करे, उसका जीवन ठीक साँचे में नहीं ढलता। मनमुख के बेअर्थ बोल होते हैं, वह अंधा ऊल-जलूल बातें ही करता है।3।1।

गउड़ी महला १ ॥ डरि घरु घरि डरु डरि डरु जाइ ॥ सो डरु केहा जितु डरि डरु पाइ ॥ तुधु बिनु दूजी नाही जाइ ॥ जो किछु वरतै सभ तेरी रजाइ ॥१॥

पद्अर्थ: डरि = डर से, प्रभु के डर-अदब में रहने से। घरु = प्रभु का घर, वह आत्मिक अवस्था जहां मन प्रभु चरणों में जुड़ा रहता है। घरि = घर में, हृदय में। डरु = प्रभु का डर, ये यकीन कि प्रभु मेरे अंदर बसता है और सबमें बसता है। डरु जाइ = (दुनिया का हरेक किस्म का) सहम दूर हो जाता है। सो डरु केहा = प्रभु का डर ऐसा नहीं होता कि। जितु डरि = कि उस डर में रहने से। डरु पाइ = दुनिया वाला सहम टिका रहे। जाइ = जगह। रजाइ = हुक्म, मर्जी।1।

अर्थ: (हे प्रभु!) तेरे डर-अदब में रहने से वह आत्मिक अवस्था मिल जाती है जहां मन तेरे चरणों में जुड़ा रहता है। हृदय में ये यकीन बन जाता है कि तू मेरे अंदर बसता है और सभमें बसता है। तेरे डर में रहने से (दुनिया के हरेक किस्म का) डर सहम दूर हो जाता है। तेरा डर ऐसा नहीं होता कि उस डर में रहने से कोई और सहम टिका रहे।

(हे प्रभु!) तेरे बिना जीव का कोई और ठिकाना-आसरा नहीं है। जगत में जो कुछ हो रहा है सब तेरी मर्जी से हो रहा है।1।

डरीऐ जे डरु होवै होरु ॥ डरि डरि डरणा मन का सोरु ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: डरीऐ = सहमे रहें। होरु = कोई और, किसी और (stranger) का। डरि डरि डरणा = सदा डरते रहना। सोरु = शोर, घबराहट, डोलने की निशानी।1। रहाउ।

अर्थ: (हे प्रभु! तेरा डर-अदब टिकने की जगह) अगर जीव के हृदय में कोई और डर टिका रहे, तो जीव सदा सहमा रहता है। मन की घबराहट मन का सहम हर वक्त बना रहता है।1। रहाउ।

ना जीउ मरै न डूबै तरै ॥ जिनि किछु कीआ सो किछु करै ॥ हुकमे आवै हुकमे जाइ ॥ आगै पाछै हुकमि समाइ ॥२॥

पद्अर्थ: जीउ = जीवात्मा। जिनि = जिस प्रभु ने। किछु = ये जगत रचना। सो = वही प्रभु। किछु = सब कुछ। आवै = पैदा होता है। जाइ = मरता है। आगै पाछै = लोक परलोक में। समाइ = टिका रहता है, टिका रहना पड़ता है।2।

अर्थ: (प्रभु के डर-अदब में रहने से ही ये यकीन बन सकता है कि) जीव ना मरता है। ना कहीं डूब सकता है ना ही कहीं से तैरता है (भाव, जो कभी डूबता ही नही, उसके तैरने का सवाल ही पैदा नहीं होता)। (ये यकीन बना रहता है कि) जिस परमात्मा ने ये जगत बनाया है, वही सब कुछ कर रहा है। उसके हुक्म में ही जीव पैदा होता है और हुक्म में ही मरता है। लोक परलोक में जीव को उसके हुक्म में टिके रहना पड़ता है।2।

हंसु हेतु आसा असमानु ॥ तिसु विचि भूख बहुतु नै सानु ॥ भउ खाणा पीणा आधारु ॥ विणु खाधे मरि होहि गवार ॥३॥

पद्अर्थ: हंसु = हिंसा, निर्दयता। हेतु = मोह। असमानु = स्वैमान (जैसे स्वरूप से असरूप) अहंकार। भूख = तृष्णा। नै = नदी। सानु = की तरह। आधारु = (आत्मिक जीवन का) आसरा। मरि = मर के, डर में खप के, डर डर के। गवारि होहि = गवार हुए जा रहे हैं।3।

अर्थ: (जिस हृदय में प्रभु का डर-अदब नहीं है और मोह है, अहंकार है) उस हृदय में तृष्णा की कांग नदी की तरह (ठाठा मार रही) है। प्रभु का डर अदब ही आत्मिक जीवन की खुराक है, आत्मा का आसरा है। जो ये खुराक नहीं खाते वह (दुनिया के) सहम में रहके कमले हुए रहते हैं।3।

जिस का कोइ कोई कोइ कोइ ॥ सभु को तेरा तूं सभना का सोइ ॥ जा के जीअ जंत धनु मालु ॥ नानक आखणु बिखमु बीचारु ॥४॥२॥

पद्अर्थ: जिस का = जिस किसी का। जिस का कोइ = जिस किसी का कोई (सहारा) बनता है। कोई कोइ कोइ = कोई विरला ही बनता है। सभ को = हरेक जीव। सोइ = सार लेने वाला।4।

अर्थ: (हे प्रभु! तेरे डर-अदब में रहने से ही ये यकीन बनता है कि) जिस किसी का कोई सहयोगी बनता है कोई विरला ही बनता है (भाव, किसी का कोई सदा के लिए साथी सहायक नहीं बन सकता)। पर, हरेक जीव तेरा (पैदा किया हुआ) है, तू सब की सार रखने वाला है।

हे नानक! जिस परमात्मा के ये सारे जीव-जन्तु पैदा किए हुए हैं (जीवों के वास्ते) उसी का ये धन माल (बनाया हुआ) है। (इससे ज्यादा ये) विचारना और कहना (कि वह प्रभु अपने पैदा किए जीवों की कैसे संभाल करता है) कठिन काम है।4।2।

गउड़ी महला १ ॥ माता मति पिता संतोखु ॥ सतु भाई करि एहु विसेखु ॥१॥

पद्अर्थ: मति = ऊँची मति। सतु = दान, खलकत की सेवा। विसेखु = विशेष तौर पर। एहु सतु विसेखु भाई = इस दान को विशेष तौर पर भाई। करि = करे, बनाए।1।

अर्थ: अगर कोई जीव-स्त्री श्रेष्ठ मति को अपनी माँ बना ले (श्रेष्ठ मति की गोद में पले), संतोष का अपना पिता बनाए (संतोष रूपी पिता की निगरानी में रहे), खलकत की सेवा को विशेष भाई बनाए (लोगों की सेवा रूपी भाई का जीवन पर विशेष असर पड़े)।1।

कहणा है किछु कहणु न जाइ ॥ तउ कुदरति कीमति नही पाइ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: कहणा है = (रक्ती मात्र) बयान है। तउ = तेरी।1। रहाउ।

अर्थ: हे प्रभु! तेरे साथ मिलाप की अवस्था बयान नहीं हो सकती। रक्ती मात्र बताई है, (क्योंकि) तेरी कुदरत का पूरा मूल्य नहीं पड़ सकता (भाव, कुदरति कैसी है, ये बताया नहीं जा सकता)।1। रहाउ।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh