श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मः २ ॥ अगी पाला कि करे सूरज केही राति ॥ चंद अनेरा कि करे पउण पाणी किआ जाति ॥ धरती चीजी कि करे जिसु विचि सभु किछु होइ ॥ नानक ता पति जाणीऐ जा पति रखै सोइ ॥२॥

पद्अर्थ: कि = क्या? कि करे = क्या बिगाड़ सकता है? सूरज = सूरज को (संप्रदान कारक है)। पउण = पवन को। चीजी = चीजें।2।

अर्थ: आग को पाला क्या कर सकता है? (पाला आग का कुछ नहीं बिगाड़ सकता) रात सूरज को नहीं बिगाड़ सकती। अंधकार चंद्रमा को कोई नुकसान नहीं पहुँचा सकता। (कोई ऊंची-नीची जाति) हवा और पानी को बिगाड़ नहीं सकती (भाव, कोई नीची जाति इन तत्वों को भ्रष्ट नहीं कर सकती)। जिस धरती में हरेक जीव पैदा होते हैं ये चीजें उस धरती को बिगाड़ नहीं सकती (ये तो पैदा ही धरती में से हुई हैं)।

(इसी तरह) हे नानक! वही इज्जत (असली) समझो (भाव, सिर्फ उसी इज्जत को कोई बिगाड़ नहीं सकता) जो इज्जत प्रभु से मिली है (प्रभु दर से जो आदर मिले उसे कोई जीव बिगाड़ नहीं सकता, इस दरगाही आदर के लिए उद्यम करो)।2।

पउड़ी ॥ तुधु सचे सुबहानु सदा कलाणिआ ॥ तूं सचा दीबाणु होरि आवण जाणिआ ॥ सचु जि मंगहि दानु सि तुधै जेहिआ ॥ सचु तेरा फुरमानु सबदे सोहिआ ॥ मंनिऐ गिआनु धिआनु तुधै ते पाइआ ॥ करमि पवै नीसानु न चलै चलाइआ ॥ तूं सचा दातारु नित देवहि चड़हि सवाइआ ॥ नानकु मंगै दानु जो तुधु भाइआ ॥२६॥

पद्अर्थ: सुबहान = आश्चर्य रूप। कलाणिआ = मैंने तारीफ की है। दीबाणु = दीवान, हाकम। होरि = और सारे जीव। जि = जो जीव। सोहिआ = सुहाना लगा है। मंनिऐ = (तेरा फुरमान) मानने से। गिआनु = अस्लियत की समझ। धिआनु = ऊँची टिकी सोच, ध्यान। करमि = तेरी मेहर से। नीसानु = माथे के लेख।26।

अर्थ: हे सच्चे (प्रभु)! मैं तुझे सदा ‘सुबहान’ (कह कह के) सालाहता हूं। तू ही सदा कायम रहने वाला हाकिम है। और सारे जीव पैदा होते मरते रहते हैं। (हे प्रभु!) जो लोग तेरा सच्चा नाम रूपी दान तुझसे मांगते हैं वे तेरे जैसे हो जाते हैं। तेरा अटल हुक्म (गुर-) शब्द की इनायत से (उनको) मीठा लगता है। तेरा हुक्म मानने से असलियत की समझ व ऊूंची टिकी तवज्जो तुझसे उन्हें हासिल होती है। तेरी मेहर से (उनके माथे पे ये सुहाना) लेख लिखा जाता है जो किसी के मिटाए नहीं मिटता।

हे प्रभु! तू सदा बख्शिशें करने वाला है। तू नित्य बख्शिशें करता है और बढ़-बढ़ के बख्शिशें किए जाता है। नानक (तेरे दर से) वही दान मांगता है जो तुझे अच्छा लगता है (भाव, तेरी रजा में राजी रहने का दान मांगता है)।26।

सलोकु मः २ ॥ दीखिआ आखि बुझाइआ सिफती सचि समेउ ॥ तिन कउ किआ उपदेसीऐ जिन गुरु नानक देउ ॥१॥

पद्अर्थ: दीखिआ = दिक्षा, शिक्षा। आखि = कह के, सुना के। बुझाइआ = ज्ञान दिया है, आत्मिक जीवन की सूझ दी है। सिफती = महिमा से। सचि = सत्य में। समेउ = समाई दी है, जोड़ा है। किआ = और क्या?।1।

अर्थ: हे नानक! जिनका गुरदेव है (भाव, जिनके सिर पे गुरदेव है), जिन्हें (गुरु ने) शिक्षा दे के ज्ञान दिया है और महिमा द्वारा सच से जोड़ा है, उन्हें किसी और उपदेश की जरूरत नहीं रहती (अर्थात, प्रभु नाम में जुड़ने की शिक्षा से ऊची कोई शिक्षा नहीं है)।1।

मः १ ॥ आपि बुझाए सोई बूझै ॥ जिसु आपि सुझाए तिसु सभु किछु सूझै ॥ कहि कहि कथना माइआ लूझै ॥ हुकमी सगल करे आकार ॥ आपे जाणै सरब वीचार ॥ अखर नानक अखिओ आपि ॥ लहै भराति होवै जिसु दाति ॥२॥

पद्अर्थ: लूझै = जलता है, दुखी रहता है। आकार = स्वरूप, जीव-जंतु। सरब वीचार = सब जीवों बारे विचारें। अक्षर = (सं: अक्षर) ना नाश होने वाला। अखिओ = आँखों से।

नोट: जो फर्क (ु) ओर (ो) में है वही फर्क (उ) और (ओ) में है। (शब्द ‘लखिउ’ शब्द ‘अखयय’ की प्राकृत रूप है। ‘ख्यय’ व क्षय का अर्थ है नाश। पंजाबी रूप है ‘खउ’। अखिउ = का अर्थ है ‘जिसका क्षय ना हो सके’। शब्द ‘अखिओ’ का अर्थ ‘कहा’ करना गलत है। गुरबाणी किसी और जगह पर इसकी सहायता नहीं मिलती। ‘पाइआ’ से ‘पाइओ’ हो सकता है, पर ‘पइओ’ नहीं हो सकता। वैसे ही ‘आखिआ’ से ‘आखिओ’ हो सकता है ‘आखिओ’ नहीं।

पद्अर्थ: लहै = उतर जाती है। भराति = मन की भटकना।2।

अर्थ: जिस मनुष्य को प्रभु खुद मति देता है, उसे ही मति आती है। जिस मनुष्य को खुद सूझ बख्शता है, उसे (जीवन सफर की) हरेक बात की सूझ आ जाती है। (अगर ये मति और सूझ नहीं तो इसकी प्राप्ति बारे) कहे जाना कहे जाना (कोई लाभ नहीं देता) (मनुष्य अमली जीवन में) माया में ही जलता रहता है।

सारे जीव-जन्तु प्रभु खुद ही अपने हुक्म मुताबिक पैदा करता है। सारे जीवों के बारे में विचारें (उन्हें क्या कुछ देना है) प्रभु खुद ही जानता है। हे नानक! जिस मनुष्य को उस अबिनाशी व अक्षय प्रभु से (सूझ-बूझ की) दाति मिलती है, उसके मन की भटकना दूर हो जाती है।2।

पउड़ी ॥ हउ ढाढी वेकारु कारै लाइआ ॥ राति दिहै कै वार धुरहु फुरमाइआ ॥ ढाढी सचै महलि खसमि बुलाइआ ॥ सची सिफति सालाह कपड़ा पाइआ ॥ सचा अम्रित नामु भोजनु आइआ ॥ गुरमती खाधा रजि तिनि सुखु पाइआ ॥ ढाढी करे पसाउ सबदु वजाइआ ॥ नानक सचु सालाहि पूरा पाइआ ॥२७॥ सुधु

पद्अर्थ: वेकारु = बेकार, खाली (सिर्फ दुनिया वाले काम अंत को काम नहीं आते, सिर्फ इनमें खचित रहना जीवन सफर में बेकार रहने के तुल्य है)। ढाढी = ‘वार’ गाने वाले। कै = हलांकि। वार = यश की वाणी। कपड़ा = सिरोपाउ, अंगरखा। पसाउ = (सं: प्रसादु) खाने वाली वह चीज जो अपने ईष्ट के दर पर पहले भेट की जाए और फिर वहां दर पे गए लोगों को मिले, जैसे कड़ाह प्रसाद, गुरु दर से मिला प्रसाद,प्रभु दर से मिली दाति। पसाउ करे = प्रभु दर से मिला भोजन खाता है। वजाइआ = गाया।27।

अर्थ: मैं बेकार था। मुझे ढाढी बना के प्रभु ने (असल) काम में लगा दिया। प्रभु ने धुर से हुक्म दिया कि चाहे रात हो दिन, जस (यश, गुणगान) करते रहो।

मुझे ढाढी को (भाव, जब से मैं उसकी महिमा में लगा तो) पति ने अपने सच्चे महल में (अपनी हजूरी में) बुलाया। (उसने) सच्ची महिमा रूपी मुझे सिरोपाउ (आदर-सत्कार का प्रतीक रूपी कपड़ा) दिया। सदा कायम रहने वाला आत्मिक जीवन नाम (मेरे आत्मा के आधार के लिए मुझे) भोजन (उसकी ओर से) मिला। जिस जिस मनुष्य ने गुरु की शिक्षा पे चल के (ये ‘अमृत नामु भोजन’) पेट भर के खाया, उसने सुख पाया है। मैं ढाढी (भी ज्यों ज्यों) महिमा का गीत गाता हूँ, प्रभु दर से मिले इस नाम प्रसाद को खाता हूँ (भाव, नाम का आनंद लेता हूँ)।

हे नानक! सच्चे प्रभु की महिमा करके उस पूर्ण प्रभु की प्राप्ति होती है।27। सुधु।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh