श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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स्रीराग बाणी भगत बेणी जीउ की ॥
पहरिआ कै घरि गावणा ॥
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

रे नर गरभ कुंडल जब आछत उरध धिआन लिव लागा ॥ मिरतक पिंडि पद मद ना अहिनिसि एकु अगिआन सु नागा ॥ ते दिन समलु कसट महा दुख अब चितु अधिक पसारिआ ॥ गरभ छोडि म्रित मंडल आइआ तउ नरहरि मनहु बिसारिआ ॥१॥

पद्अर्थ: गरभ कुंडल = मां का पेट, कुंडल जैसा गर्भ स्थान। आछत = होता था। उर्ध = ऊंचा। लिव = तवज्जो, लगन। मिरतक पिंडि = मिट्टी के गोले में, शरीर में। पद = अस्तित्व, हस्ती। मद = अहंकार, माण। ना = नहीं था। अहि = दिन। निसि = रात। एकु = एक प्रभु। नागा = अस्तित्व विहीन, अभाव। ते = वह (बहुवचन)। संमलु = याद कर। पसारिआ = पसारा, फैलाव है, खिलारा है, जंजालों में फैलाया है। छोडि = छोड़ के। म्रित मण्डल = जगत, संसार। तउ = जब। नरहरि = परमात्मा को। मनहु = मन से।1।

अर्थ: हे मनुष्य जब तू मां के पेट में था, तब तेरी तवज्जो ऊचे (प्रभु के) ध्यान में जुड़ी रहती थी। (तुझे तब) शरीर के अस्तित्व का अहंकार नहीं था। दिन रात एक प्रभु को (स्मरण करता था)। (तेरे अंदर) अज्ञान नहीं था। (हे मनुष्य!) वो दिन अब याद कर (तब तुझे) बहुत कष्ट व तकलीफें थीं। पर अब तूने अपने मन को (दुनिया के जंजालों में) बहुत फंसा रखा है। मां का पेट छोड़ के जब का तू जगत में आया है, तब से तूने अपने निरंकार को भुला दिया है।1।

फिरि पछुतावहिगा मूड़िआ तूं कवन कुमति भ्रमि लागा ॥ चेति रामु नाही जम पुरि जाहिगा जनु बिचरै अनराधा ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मूढ़िआ = हे मूर्ख! कवन कुमति = किस बुरी मति से? भ्रमि = भुलेखे में। चेति = याद कर। नाही = नहीं तो। जनु = जानो, मानों, जैसे (लाख बेदन ‘जणु’ आई)। अनराधा = (अनिरुध), अमोड़।1। रहाउ।

अर्थ: हे मूर्ख! तू किस मति, किस भुलेखे में लगा हुआ है? (समय को हाथों से गवा के) फिर हाथ मलेगा। प्रभु को स्मरण कर वरना यमपुरी में धकेल दिया जाएगा। (तू तो ऐसे घूम रहा है) जैसे कोई ना मुड़ने वाला सख्श (जिसने कभी वापिस ही नहीं जाना हो)।1। रहाउ।

बाल बिनोद चिंद रस लागा खिनु खिनु मोहि बिआपै ॥ रसु मिसु मेधु अम्रितु बिखु चाखी तउ पंच प्रगट संतापै ॥ जपु तपु संजमु छोडि सुक्रित मति राम नामु न अराधिआ ॥ उछलिआ कामु काल मति लागी तउ आनि सकति गलि बांधिआ ॥२॥

पद्अर्थ: बिनोद = खेलें। चिंद = ध्यान। बिआपै = दबा रहता है। मोहि = मोह में। रसु = स्वाद, चस्का। मिसु = बहाना। मेधु = पवित्र। बिखु = जहिर। प्रगट = खुले तौर पर, निर्लज हो के, शर्म उतार के। संतापै = सताते हैं। संजमु = इन्द्रियों को रोकना। सुक्रित मति = पुण्य कर्म करने वाली बुद्धि। काल = कालख। आनि = ले आ के। सकति = स्त्री। गलि = गले में, गले से।2।

अर्थ: (पहले) तू बालपन की खेलों व स्वाद में लगा रहा और सदा (इनके ही) मोह में फंसा रहा। (अब जबसे) तूने माया रूपी विष को रसीला व पवित्र अमृत समझ के चख लिया है, तब से तुझे पाँचों विकार (कामादिक) खुले तौर पर सता रहे हैं। जप तप संजम और पुण्य कर्म करने वाली बुद्धि तू त्याग बैठा है। प्रभु के नाम को नहीं स्मरण करता। (तेरे अंदर) काम प्रबल है। तेरी बुद्धि गलत रास्ते पर लगी हुई है। (कामातुर हो के) तूने स्त्री को गले से लगाया है।2।

तरुण तेजु पर त्रिअ मुखु जोहहि सरु अपसरु न पछाणिआ ॥ उनमत कामि महा बिखु भूलै पापु पुंनु न पछानिआ ॥ सुत स्मपति देखि इहु मनु गरबिआ रामु रिदै ते खोइआ ॥ अवर मरत माइआ मनु तोले तउ भग मुखि जनमु विगोइआ ॥३॥

पद्अर्थ: तरुण = जवानी। तेजु = जोर। त्रिअ मुख = स्त्रियों के मुंह। जोहहि = तू देखता है। सर अपसर = अच्छा बुरा वक्त, वक्त बेवक्त। उनमत कामि = हे काम में मस्त हुए हुये! संपति = धन, खुशहाली। गरबिआ = अहंकारी हो गया। खोइआ = भुला बैठा है। अवर मरत = औरों के मरने पे। तउ = इस तरह। भग मुखि = भाग्य से मिला श्रेष्ठ। विगोइआ = विगोया, बेकार गवा लिया है।3।

अर्थ: (तेरे अंदर) जवानी का जोश है। तू पराई औरतों का मुंह देखता है। वक्त बेवक्त भी तू नहीं समझता। हे काम में मस्त हुए हुये! हे प्रबल माया में भूले हुए!! तूझे ये समझ नहीं कि पाप क्या है और पुंन्न क्या। पुत्रों को, धन पदार्थों को देख तेरा मन अहंकारी हो रहा है। प्रभु को तू हृदय से विसार बैठा है। औरों (संबंधियों) के मरने पर तेरा मन गिनती मिनती में लग जाता है कि कितनी माया मिलेगी। इस तरह तूने अपने उत्तम व श्रेष्ठ (मनुष्य) जीवन को व्यर्थ गवा लिया है।3।

पुंडर केस कुसम ते धउले सपत पाताल की बाणी ॥ लोचन स्रमहि बुधि बल नाठी ता कामु पवसि माधाणी ॥ ता ते बिखै भई मति पावसि काइआ कमलु कुमलाणा ॥ अवगति बाणि छोडि म्रित मंडलि तउ पाछै पछुताणा ॥४॥

पद्अर्थ: पुंडर = सफेद रंग का कमल फूल। कुसम = फूल। ते = से। धउले = सफेद। बाणी = बोली, आवाज। सपत पताल की = सातवें पाताल से आयी हुई, बहुत मध्यम व बारीक। लोचन = आँखें। स्रमहि = सिमना, चू रही है, बीच में से नीर चल रहा है। नाठी = भाग गयी। पवसि = पड़ रही है। बिखै पवसि = विषयों की झड़ी। अवगति = अदृष्ट परमात्मा। अवगति बाणि = प्रभु की महिमा की वाणी। म्रित मंडलि = मृत मण्डल, जगत में।4।

अर्थ: तेरे केस सफेद कमल के फूल से भी ज्यादा सफेद हो चुके हैं। तेरी आवाज (बहुत मद्यम हो गयी है, मानो) सातवें पाताल से आ रही है। तेरी आँखें सिम रहीं हैं, तेरी चतुरायी भरी बुद्धि क्षीण हो चुकी है, तो भी काम (की) मथानी (तेरे अंदर) चल रही है (अर्थात, अभी भी काम की वासना जोरों में है)। इन ही वासनाओं के कारण तेरी बुद्धि में विषौ विकारों की झड़ी लगी हुई है, तेरा शरीर रूपी कमल फूल कुम्हला गया है। जगत में आ के तू परमात्मा का भजन छोड़ बैठा है। (समय बीत जाने पर) पीछे हाथ मलेगा।4।

निकुटी देह देखि धुनि उपजै मान करत नही बूझै ॥ लालचु करै जीवन पद कारन लोचन कछू न सूझै ॥ थाका तेजु उडिआ मनु पंखी घरि आंगनि न सुखाई ॥ बेणी कहै सुनहु रे भगतहु मरन मुकति किनि पाई ॥५॥

पद्अर्थ: निकुटी = छोटी सी। निकुटी देह = छोटे छोटे बच्चे। धुनि = प्यार, मोह। जीवन पद = जिंदगी। कारन = वास्ते। सूझे = दिखता। थाका = समाप्त हो गया। तेजु = शारीरिक बल। घरि = घर में। आंगनि = आंगन में। मरन मुकति = मरने के बाद मुक्ति। किनि = किस ने?।5।

अर्थ: छोटे छोटे बच्चे (पुत्र पौत्र) देख के (मनुष्य के मन में उनके लिए) मोह पैदा होता है, अहंकार करता है। पर इसको ये समझ नहीं आती (कि सब कुछ छोड़ जाना है)। आँखों से दिखना बंद हो जाता है (फिर भी मनुष्य) और जीने का लालच करता है। (आखिर) शरीर का बल खत्म हो जाता है, (और जब) जीव पंछी (शरीर में से) उड़ जाता है (तब मुर्दा देह) धर में, आंगन में, पड़ी हुई अच्छी नहीं लगती।

बेणी कहता है: हे संत जनों! (अगर मनुष्य का सारी जिंदगी यही हाल रहा, भाव, जीते जी कभी भी विकारों और मोह से मुक्त ना हुआ, यदि जीवन मुक्त ना हुआ तो ये सच जानो कि) मरने के बाद मुक्ति किसी को नहीं मिलती।5।

शब्द का भाव: जगत की माया में फंस के जीव प्रभु की याद भुला देता है। सारी उम्र विकारों में ही गुजारता है। बुढ़ापे में सारे अंग कमजोर हो जाने पर भी और-और जीने की लालसा किए जाता है, पर प्रभु की याद की ओर फिर भी नहीं मुड़ता। इस तरह मानव जन्म व्यर्थ गवा लेता है।

नोट: “पहरिआ कै घरि गावणा।”

भाव: (इस शब्द को) उस ‘घर’ में गाना है जिस में वह शब्द है जिसका शीर्षक है ‘पहरे’।

ये वाणी ‘पहरे’ इसी ही राग (सिरी राग) में गुरु नानक साहिब जी की है; ‘असटपदियों के बाद में दर्ज है। 1430 पन्नों वाली बीड़ के पन्ना 74 पर। उसका शीर्षक है ‘सिरी राग पहरे महला १ घरु १”।

से बेणी जी के इस शब्द का ‘घरु’ भी ‘१’ है। इसे ‘घर’ पहिले में गाना है।

पर, लफ्ज़ ‘घर १’ की जगह इतने लफ्ज़ ‘पहरिआ कै घरि गावणा’ क्यूँ लिखे हैं? ‘पहरे महला १’ और बेणी जी के इस शब्द में जरूर कोई ना कोई गहरा संबंध होगा। आओ देखें;

(ੴ) एक ओअंकार सतिगुर प्रसादि॥ सिरी रागु महल पहरै १ घरु १॥ पहिलै पहिरै रैणि कै, वणजारिआ मित्रा, हुकमि पइआ गरभासि॥ उरध तपु अंतरि करे वणजारिआ मित्रा खसम सेती अरदासि॥ खसम सेती अरदासि वखाणै उरध धिआनि लिव लागा॥ नामरजादु आइआ मलि भीतरि बाहुड़ि जासी नागा॥ जैसी कलम वुड़ी है मसतकि तैसी जीअड़े पासि॥ कहु नानक प्राणी पहिलै पहिरै हुकमि पइआ गरभासि॥१॥ (पन्ना ७४)

‘पहरिआं’ के दो शब्द सतिगुरु नानक देव जी के हैं। उनमें से सिर्फ पहिले शब्द का पहला बंद यहां प्रमाण के तौर पे दिया गया है। बाकी दानों शब्द पाठक सज्जन पेज 74 से स्वयं पढ़ के देख लें। एक-एक बंद में ही गहु से देखो;

(1) तुकों की चाल गुरु नानक देव जी और बेणी जी की सांझी एक समान है।

(2) दोनों में कई शब्द सांझे हैं;

गुरु नानक बेणी

गरभासि गरभ कुंडल

उरध तपु उरध धिआन

(3) एक तुक हू-ब-हू मिलती है;

बेणी जी: ‘उरध धिआन लिव लागा’।

गुरु नानक देव: ‘उरध धिआनि लिव लागा’।

ये सांझ ब-सबब नहीं हो गयी। स्पष्ट है कि बेणी जी का ये शब्द गुरु नानक देव जी के पास मौजूद था। बेणी जी के ‘ख्यालों’ को सतिगुरु जी ने ‘पहरिआं’ के दोनों शबदों में बयान किया है।

सो, शीर्षक ‘पहरिआं के घरि गावणा’ बेणी जी ने नहीं लिखा। गुरु नानक देव जी ने या गुरु अरजन साहिब ने लिखा है। और, ये शीर्षक ये बात प्रगट करता है कि बेणी जी का ये शब्द गुरु नानक देव जी के पास मौजूद था। भगतों की वाणी गुरु नानक देव जी ने स्वयं ही एकत्र की थी।


सिरीरागु ॥ तोही मोही मोही तोही अंतरु कैसा ॥ कनक कटिक जल तरंग जैसा ॥१॥

पद्अर्थ: तोही मोही = तेरे मेरे में। मोही तोही = मेरे तेरे में। अंतरु = अंतर, फर्क, भेद। अंतरु कैसा = अतर कैसा है, कोई असली फर्क नही है। कनक = सोना। कटिक = कड़े, कंगन। जल तरंग = पानी की लहरें।1।

अर्थ: (हे परमात्मा!) तेरी मुझसे, मेरी तूझसे (असल) दूरी कैसी है? (वैसी ही है) जैसी सोने और सोने के कड़े की, या पानी ओर पानी की लहरों की है।1।

जउ पै हम न पाप करंता अहे अनंता ॥ पतित पावन नामु कैसे हुंता ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: जउ पै = यदि, अगर। हम = हम जीव। न करंता = ना करते। अहे अनंता = हे बेअंत (प्रभु)! पतित = गिरे हुए, नीच, विकारों पड़े हुए। पावन = पवित्र करने वाला। पतित पावन = नीचों को ऊचा करने वाला, पापियों को पवित्र करने वाला। हुंता = होता।1। रहाउ।

अर्थ: हे बेअंत (प्रभु) जी! अगर हम जीव पाप ना करते तो तेरा नाम (पापियों को पवित्र करने वाला) ‘पतित पावन’ कैसे हो जाता?।1। रहाउ।

तुम्ह जु नाइक आछहु अंतरजामी ॥ प्रभ ते जनु जानीजै जन ते सुआमी ॥२॥

पद्अर्थ: नाइक = नेता, सीधे राह डालने वाले, तारनहार। आछहु = हैं। प्रभ ते = मालिक से। मालिक को परख के। जनु = सेवक, नौकर। जानीजै = पहचाना जाता है। जन ते = सेवक से, सेवक को जांचा जाता है।2।

अर्थ: हे हमारे दिलों के ज्ञाता प्रभु! तू जो हमारा मालिक है (तो फिर मालिकों वाला बिरद पाल, अपने ‘पतित पावन’ नाम की लज्जा रख)। मालिक को देख के ये पहचान लेते हैं कि इसका सेवक कैसा है और सेवक से मालिक की परख हो जाती है।2।

सरीरु आराधै मो कउ बीचारु देहू ॥ रविदास सम दल समझावै कोऊ ॥३॥

पद्अर्थ: आराधे = स्मरण करे। सरीरु अराधै = शरीर स्मरण करे, जब तक शरीर कायम है मैं स्मरण करूँ। मो कउ = मुझे। बीचारु = सुमति, सूझ। देहू = दे। सम दल = दलों में समान बर्ताव वाला, सब जीवों में व्यापक। कोऊ = कोई (संत जन)।3।

अर्थ: (सो, हे प्रभु!) मुझे ये सूझ बख्श कि जब तक मेरा ये शरीर है तब तक मैं तेरा स्मरण करूँ। (ये भी मेहर कर कि) रविदास को कोई संत जन ये समझ भी दे कि तू सर्व-व्यापक है।3।

शब्द का भाव: असल में परमात्मा और जीवों में कोई भिन्न-भेद नहीं है। वह स्वयं ही सब जगह व्यापक है जीव उसे भुला के पापों में पड़ के उससे अलग प्रतीत होते हैं। आखिर, वह स्वयं ही कोई संत जन मिला के भूले हुए जीवों को अपना असल स्वरूप दिखलाता है।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh