श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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नानक कागद लख मणा पड़ि पड़ि कीचै भाउ ॥ मसू तोटि न आवई लेखणि पउणु चलाउ ॥ भी तेरी कीमति ना पवै हउ केवडु आखा नाउ ॥४॥२॥

पद्अर्थ: कागद = कागज। कीचै = किया जाए। भाउ = अर्थ। मसू = (शब्द ‘मसु’ का संबंधकारक) मसु की, स्याही की। न आवई = न आए। लेखणि = कलम। पवणु = हवा। चलाउ = मैं चलाऊँ।4।

अर्थ: हे नानक! (कह: हे प्रभु! अगर मेरे पास तेरी वडियाईयों से भरे हुए) लाखों मन कागज़ हों, उनको बार बार पढ़ के विचार भी की जाए, यदि (तेरी वडियाई लिखने के वास्ते) मैं हवा को कलम बना लूँ (लिखते-लिखते) स्याही की भी कभी कमी ना आए, तो भीहे प्रभु! मैं तेरा मुल्य नहीं पा सकता, मैं तेरी बड़ाई महानता बताने के काबिल नहीं हूँ।4।2।

नोट: आखीरले अंक 2 का भाव ये है कि ये दूसरे शब्द की समाप्ति है।

भाव: यदि करोड़ों साल अटूट समाधि लगा के और बड़े-बड़े तप बर्दाश्त करके कोई दिव्य दृष्टि हासिल कर लें, अगर उड़ने की स्मर्था हासिल करके परमात्मा की रची हुई रचना का आखिरी छोर ढूँढने के लिए सैकड़ों आसमानों तक हो आए। यदि कभी ना खत्म होने वाली स्याही से लाखों मन कागजों पे प्रभु की महानता का लेखा निरंतर लिखते जाएं, तो भी कोई जीव उसकी वडिआईयों का अंत पाने के काबिल नहीं है। वह निरंकार प्रभु अपने सहारे खुद कायम है, उस को सहारा देने वाला कोई उसका शरीक नहीं है। वह जिस पर मेहर करे उसको अपनी महिमा की दात बख्शता है।2।

सिरीरागु महला १ ॥ लेखै बोलणु बोलणा लेखै खाणा खाउ ॥ लेखै वाट चलाईआ लेखै सुणि वेखाउ ॥ लेखै साह लवाईअहि पड़े कि पुछण जाउ ॥१॥

पद्अर्थ: लेखै = लेखे में, गिनती मिनती में, थोड़े ही समय के लिए। बोलणु बोलणा = बोल चाल। खाणा खाउ = खाना पीना। वाट = जिंदगी का सफर। चलाइआ = जो चलाई हुई है। सुणि वेखाउ = सुनना और देखना। लवाईअहि = जो लिये जा रहे हैं। पढ़े = पढ़े हुए मनुष्य को। कि = क्या? पढ़े कि पुछण जाउ = मैं (इस बारे) किसी पढ़े लिखे को क्या पूछने जाऊँ? इस बारे में किसी से पूछने की जरूरत नहीं, हर कोई जानता है।1।

अर्थ: ये बात हर कोई जानता है कि हम जिंदगी की सांसे गिने-चुने समय के लिए ही ले रहे हैं, हमारा बोल-चाल, हमारा खाना पीना थोड़े ही समय के लिए है। जिस जीवन सफर पर हम चले हुए हैं ये सफर भी थोड़े ही समय के लिए है, (दुनिया के राग-रंग और रंग-तमाशे) सुनने देखने भी थोड़े ही समय के लिये हैं।1।

बाबा माइआ रचना धोहु ॥ अंधै नामु विसारिआ ना तिसु एह न ओहु ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: बाबा = हे भाई! रचना = खेल। धोहु = खेल, चार दिन की खेल। अंधै = अंधे ने, माया की खेल में अंधे हुए आदमी ने। एह = माया। ओहु = प्रभु का नाम।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! माया की खेल (जीवों के लिये) चार दिन की ही खेल है। पर इस चार दिन की खेल में अंधे हुए मनुष्य ने प्रभु का नाम विसार दिया है, ना माया साथ ही निभती है ना प्रभु का नाम ही मिलता है।1। रहाउ।

जीवण मरणा जाइ कै एथै खाजै कालि ॥ जिथै बहि समझाईऐ तिथै कोइ न चलिओ नालि ॥ रोवण वाले जेतड़े सभि बंनहि पंड परालि ॥२॥

पद्अर्थ: जीवण मरणा = पैदा होने से ले के मरने तक। जाइ कै = जनम ले के, पैदा हो के। एथै = इस दुनिया में। खाजै = खाने की कोशिशें, पदार्थ एकत्र करने की धुन। कालि = (सारे) समय में, सारी उम्र। बहि = बैठ के। समझाईऐ = (जिंदगी में किए कामों का लेखा) समझाया जाता है। सभि = सारे ही। पंड परालि = पराली की गठड़ी, बेकार के भार।2।

अर्थ: जगत में जनम से ले कर मरने तक सारी उम्र (मनुष्य) पदार्थ एकत्र करने की कोशिश में लगा रहता है। (जिनकी खातिर ये दौड़-भाग करता है, उनमें से) कोई भी उस जगह तक साथ नहीं निभाता जहाँ इसको (सारी जिंदगी किये कामों का लेखा) समझाया जाता है। (इसके मरने के बाद) इसको रोने वाले सारे ही संबंधी (इसके भार की) पराली की गठड़ी उठाते हैं (कयोंकि मरने वाले को कोई लाभ नहीं होता)।2।

सभु को आखै बहुतु बहुतु घटि न आखै कोइ ॥ कीमति किनै न पाईआ कहणि न वडा होइ ॥ साचा साहबु एकु तू होरि जीआ केते लोअ ॥३॥

पद्अर्थ: सभ को = हरेक जीव। आखै = कहता है, मांगता है। आखै बहुतु बहुतु = बहुत माया मांगता है। कहणि = कहने से। कहणि न वडा होइ = अपने कहने से कोई बड़ा नहीं बना, मुंह मांगे धन से कभी कोई तृप्त नहीं हुआ। कीमति...पाईआ = किसी ने कभी अपने मांगने की कोई कीमत नहीं डाली। मांगने की कभी कोई सीमा नहीं मिली, बस नहीं की। साचा = सदा स्थिर रहने वाला। साहिब = मालिक। होरि केते = बाकी सारे बेअंत जीव। लोअ = लोक, सृष्टियां।3।

अर्थ: (हे प्रभु!) हरेक जीव (तुझे) बहुत बहुत धन वास्ते ही कहता है, कोई भी थोड़ा नहीं मांगता, किसी ने भी कभी मांगने से बस नहीं की, मांग मांग के कभी कोई तृप्त नहीं हुआ (पर वह सारा ही धन यहाँ रह जाता है)। हे प्रभु! तू एक ही सदा कायम रहने वाला खालक है, और सारे जीअ-जंतु और सारे जगत मण्डल नाशवान हैं।3।

नीचा अंदरि नीच जाति नीची हू अति नीचु ॥ नानकु तिन कै संगि साथि वडिआ सिउ किआ रीस ॥ जिथै नीच समालीअनि तिथै नदरि तेरी बखसीस ॥४॥३॥

पद्अर्थ: हू = से। तिन कै संगि = उन के साथ है। वडिआं सिउ = माया धारियों से। रीस = बराबरी, तुलना, किसी और राह पे चलना। वडिआं सिउ किआ रीस = माया धारियों की राह पे नहीं चलना। समालिअनि = सम्भाले जाते हैं, सार ली जाती है।4।

अर्थ: (हे प्रभु! मैं तुझसे यही मांगता हूँ कि तेरा) नानक उन लोगों से साथ बनाये जो नीच से नीच जाति के हैं जो नीचों से भी अति नीच कहलाते हैं। मुझे मायाधारियों के राह पर चलने की कोई तमन्ना नहीं है (क्योंकि मुझे पता है कि) तेरी मंहर की नजर वहाँ है जहाँ गरीबों की सार ली जाती है।4।3।

नोट: अंक 3 बताता है कि तीसरा शब्द समाप्त हुआ है।

भाव: चार दिनों की खेल की खातिर जीव प्रभु का नाम विसार कर जीवन व्यर्थ गवाते हैं। जिंदगी के दिन गिने चुने हैं, ये भी गवा लिए खाने के पदार्तों की कोशिशों में, सदा धनही मांगते रहे जो साथ नहीं निभता। पर प्रभु की मेहर उन पर है जो मायाधारियों की राह पर नहीं चलते।

नोट: गुरु नानक देव जी के ख्याल अनुसार निरी जगत की प्राप्तियां ही जीवन का सही रास्ता नहीं है।

सिरीरागु महला १ ॥ लबु कुता कूड़ु चूहड़ा ठगि खाधा मुरदारु ॥ पर निंदा पर मलु मुख सुधी अगनि क्रोधु चंडालु ॥ रस कस आपु सलाहणा ए करम मेरे करतार ॥१॥

पद्अर्थ: लबु = खाने का लालच। कूड़ु = झूठ बोलना। ठगि = ठग के। पर मलु = पराई मैल। मुखि = मुँह में। सुधी = सारी की सारी, समूची। अगनि = आग। रस कस = चसके। आपु सलाहणा = अपने आप को सलाहना, स्वै-प्रशंसा करनी। ए = ये, यह।1।

अर्थ: हे मेरे कर्तार! मेरी तो ये करतूतें हैं; खाने का लालच (मेरे अंदर) कुत्ता है (जो हर वक्त खाने को मांगता है भौंकता है), झूठ (बोलने की आदत मेरे अंदर) चूहड़ा है (जिसने मुझे बहुत नीच कर दिया है), (दूसरों को) ठग के खाना (मेरे अंदर) मुरदार है (जो स्वार्थ की बदबू बढ़ा रहा है), पराई निंदा मेरे मुंह में समूची पराई मैल है, क्रोधाग्नि (मेरे अंदर) चंडाल (बनी हुई है), मुझे कई चसके हैं, मैं अपने आप को वडिआता हूँ, स्वै-प्रशंसा में लिप्त हूँ।1।

बाबा बोलीऐ पति होइ ॥ ऊतम से दरि ऊतम कहीअहि नीच करम बहि रोइ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: बाबा = हे भाई! बोलिऐ = वह बोल बोलें, प्रभु की महिमा ही करें। पति = इज्जत। से = वही बंदे। दरि = हरि की हजूरी में। कहीअहि = कहे जाते हैं। नीच करम = मंदकर्मी बंदे।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! वे बोल बोलने चाहिए (जिससे प्रभु की हजूरी में) इज्जत मिले। वही मनुष्य (असल में) अच्छे हैं, जो परमेश्वर की हजूरी में अच्छे कहे जाते हैं, मंदकर्मी बंदे चिन्ता मेंझुरते ही हैं।1। रहाउ।

रसु सुइना रसु रुपा कामणि रसु परमल की वासु ॥ रसु घोड़े रसु सेजा मंदर रसु मीठा रसु मासु ॥ एते रस सरीर के कै घटि नाम निवासु ॥२॥

पद्अर्थ: रसु = चसका। रूपा = चाँदी। कामणि = स्त्री। परमल = सुगंधि। परमल की वास = सुगंध सूंघनी। मंदर = सुंदर घर। एते = इतने, कई। कै घटि = किस हृदय में?।2।

अर्थ: सोना चांदी (एकत्र करने) का चस्का, स्त्री (भाव, काम) का चस्का, सुगंधियों की लगन, घोड़ों (की सवारी) का शौक, (नर्म नर्म) सेजों (सुंदर) महलों की लालसा, (स्वाद भरपूर) मीठे पदार्थ, तथा मास (खाने) का चस्का- अगर मनुष्य के शरीर को इतने चस्के लगे हुये हैं, तो परमात्मा के नाम का ठिकाना किस हृदय में हो सकता है? 2।

जितु बोलिऐ पति पाईऐ सो बोलिआ परवाणु ॥ फिका बोलि विगुचणा सुणि मूरख मन अजाण ॥ जो तिसु भावहि से भले होरि कि कहण वखाण ॥३॥

पद्अर्थ: जितु बोलिऐ = जिस बोल के बोलने से। जितु = जिस (बोल) के द्वारा। परवाणु = स्वीकार, कुशलता वाला, सुलक्षणा। बोलि = बोल के। विगुचणा = खुआर होता है। मन = हे मन! भावहि = अच्छे लगते हैं। तिसु = उस प्रभु को। कि = क्या? कहण वखाण = कहना कहाना, फालतू बातें। कि = किस अर्थ का? , कोई लाभ नहीं।2।

अर्थ: बोल वही बोले हुए बढ़िया हैं जिस बोल के बोलने से (प्रभु की हजूरी में) आदर मिलता है। हे मूर्ख अन्जान मन! सुन, फीके बोल (नाम रस विहीन) बोलने से दुख मिलता है (भाव, यदि सारी उम्र सिर्फ निरी-कोरी बातें ही करते रहे, जो प्रभु की याद से खाली हों तो दूखी ही रहते हैं) प्रभु की महिमा के बिना और सब बातें व्यर्थ हैं। जो मनुष्य (प्रभु की महिमा करके) उस प्रभु को प्यारे लगते हैं वही अच्छे हैं।3।

तिन मति तिन पति तिन धनु पलै जिन हिरदै रहिआ समाइ ॥ तिन का किआ सालाहणा अवर सुआलिउ काइ ॥ नानक नदरी बाहरे राचहि दानि न नाइ ॥४॥४॥

पद्अर्थ: तिन पलै = उन लोगों के पास। जिन हिरदै = जिनके हृदय में। सुआलिउ = सुंदर। काइ = कौन? नानक = हे नानक! नदरी बाहरे = प्रभु की मेहर के नजर से वंचित रहना। दानि = दान में, प्रभु के दिये हुए पदार्थ में। नाइ = प्रभु के नाम मे।4।

अर्थ: जो लोगों के हृदय में प्रभु हर वक्त बस रहा है, वे अक्ल वाले हैं, इज्जत वाले हैं और धनवान हैं। ऐसे भले मनुष्यों की सिफतिनहीं की जा सकती। उनके जैसा खूबसूरत और कौन है? हे नानक! प्रभु की नज़र से वंचित लोग उसके नाम से नहीं जुड़ते, बल्कि, उसके दिए धन-पदार्तों में मस्त रहते हैं।4।4।

नोट: आखिरी अंक 4 बताता है कि ये चौथा शब्द है।

भाव: जिस मनुष्य के मन में दुनियावी चस्कों और विकारों का जोर हो वे प्रमात्मा के नाम में नहीं जुड़ सकते। चस्के-विकार व भक्ति एक ही हृदय में इकट्ठे नहीं हो सकते। ऐसा मनुष्य यद्यपि, कितना ही बुद्धिमान, मशहूर व धनवान क्यूँ ना हो उसका जीवन दुखों में ही व्यतीत होता है।

नोट: शब्द के अंक नं: 2 को ध्यान से देखिए। चस्का कोई भी हो बुरा है। आदमी तभी गलत रास्ते पर पड़ता है जब शारीरिक जरूरतों से आगे बढ़ के चस्के में फंस जाता है। ये चस्का चाहे धन जोड़ने का है, चाहे काम-वासना का है, चाहे सुंदर घर बनाने का है, चाहे मिठाईयां चखने का है व चाहे मास खाने का है। इस तरह, बाकी चस्कों की तरह मास खाना भी तभी दुष्ट करतूत है जब ये जरूरत पार कर के चस्का बन जाता है।

सिरीरागु महला १ ॥ अमलु गलोला कूड़ का दिता देवणहारि ॥ मती मरणु विसारिआ खुसी कीती दिन चारि ॥ सचु मिलिआ तिन सोफीआ राखण कउ दरवारु ॥१॥

पद्अर्थ: अमलु = नशा (अफीम आदि का)। गलोला = गोला। कूड़ = नाशवान जगत (मोह का)। देवणहारि = देवनहार ने। मती = मस्त हुई ने। सचु = सदा स्थिर रहने वाला प्रभु। सोफी = जो नशे से परहेज करते हैं, जिन्होंने नाशवान जगत के मोह रूपी नशे का त्याग किया है। राखण कउ = रखने के लिए, कब्जे के लिए। दरवारु = प्रभु का दर।1।

अर्थ: देनहार प्रभु ने स्वयं ही जगत को मोह रूपी अफीम का गोला जीवों को दिया हुआ है। (इस मोह अफीम को खा के) मस्त हुई जीवात्मा ने मौत को भुला दिया है, चार दिन की जिंदगी में रंग-रलियां मना रही है। जिन्होंने मोह का नशा त्याग के प्रमात्मा के दर पर पहुँचने की कोशिश की है, उन्हें स्थाई प्रभु मिल गया।1।

नानक साचे कउ सचु जाणु ॥ जितु सेविऐ सुखु पाईऐ तेरी दरगह चलै माणु ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: जितु सेविऐ = जिसका स्मरण करने से। चलै माणु = आदर मिले।1। रहाउ।

अर्थ: हे नानक! सदा कायम रहने वाले परमात्मा के साथ सच्ची सांझ बना जिसका स्मरण करने से सुख मिलता है। (और अरदास कर कि हे प्रभु! अपना नाम दे जिस करके) तेरी हजूरी में आदर मिल सके।1। रहाउ।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh