श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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जेवडु आपि तेवड तेरी दाति ॥ जिनि दिनु करि कै कीती राति ॥ खसमु विसारहि ते कमजाति ॥ नानक नावै बाझु सनाति ॥४॥३॥

नोट: ‘आखणि पाइ’ एक वचन है ‘जे को खाइकु आखणि पाइ’।

पद्अर्थ: जेवडु = जितना बड़ा। तेवड = उतनी बडी। जिनि = जिस ने। करि कै = पैदा कर के। विसारहि = भुला देते हैं। ते = वह (बंदे) (बहुवचन)। कमजाति = बुरी जाति वाले। नावै बाझु = हरि नाम के बिना। सनाति = नीच।4।

अर्थ: (हे प्रभु!) जितना बेअंत तू स्वयं है उतनी बेअंत तेरी बख्शिश। (तू ऐसा है) जिस ने दिन बनाया है और रात बनाई है।

हे नानक! वे लोग नीच जीवन वाले बन जाते हैं जो (ऐसे) खसम प्रभु को भुला देते हैं। नाम से रहित जीव ही नीच हैं।4।3।

रागु गूजरी महला ४ ॥ हरि के जन सतिगुर सतपुरखा बिनउ करउ गुर पासि ॥ हम कीरे किरम सतिगुर सरणाई करि दइआ नामु परगासि ॥१॥

पद्अर्थ: हरि के जन = हे हरि के सेवक! स्तिगुरू = हे सतिगुर! सत पुरखा = हे महापुरख गुरु! बिनउ = विनय, विनती। करउ = करूँ, मैं करता हूँ। गूर पासि = हे गुरु! तेरे पास। सतिगुर सरणाई = हे गुरु! तेरी शरण। कीरे किरम = कीड़े कृमि, छोटे कीड़े मकोड़े। परगासि = प्रगट कर, रोशन कर।1।

अर्थ: हे महापुरख गुरु! हे प्रभु के भक्त सत्गुरू! मैं, हे गुरु! तेरे आगे विनती करता हूँ - कृपा करके (मेरे अंदर) प्रभु के नाम का प्रकाश पैदा कर। हे सत्गुरू! मैं निमाणा तेरी शरण आया हूँ।1।

मेरे मीत गुरदेव मो कउ राम नामु परगासि ॥ गुरमति नामु मेरा प्रान सखाई हरि कीरति हमरी रहरासि ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मो कउ = मुझे, मेरे अंदर। मीत = हे मित्र! गुरमति = गुरु की मति द्वारा (प्राप्त हुआ)। प्रान सखाई = प्राण के साथी। कीरति = कीर्ति, शोभा, महिमा। रहरासि = राह की राशि, जिंदगी के सफर वास्ते खर्च।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे मित्र गुरु! मुझे प्रभु के नाम का प्रकाश बख्श। गुरु की बताई मति द्वारा मिला हुआ हरि नाम मेरे जीवन का साथी बना रहे, ईश्वर की महिमा मेरी जिंदगी के सफर के लिए राशि पूंजी बनी रहे।1। रहाउ।

हरि जन के वड भाग वडेरे जिन हरि हरि सरधा हरि पिआस ॥ हरि हरि नामु मिलै त्रिपतासहि मिलि संगति गुण परगासि ॥२॥

पद्अर्थ: त्रिपतासहि = त्रिप्त हो जाते हैं। मिलि = मिल के।2।

अर्थ: प्रभु के उन सेवकों के बड़े ही ऊँचे भाग्य हैं जिनके अंदर प्रभु के नाम के वास्ते श्रद्धा है, खिचाव है। जब उन्हें प्रमात्मा का नाम प्राप्त होता है वे (माया की तृष्णा से) त्रिप्त हो जाते हैं, साधु-संगत में मिल के (उनके अंदर भले गुण) पैदा होते हैं।2।

जिन हरि हरि हरि रसु नामु न पाइआ ते भागहीण जम पासि ॥ जो सतिगुर सरणि संगति नही आए ध्रिगु जीवे ध्रिगु जीवासि ॥३॥

पद्अर्थ: ध्रिग जीवे = लाहनत है उनके जीवन को।3।

अर्थ: पर जो मनुष्यों को परमात्मा के नाम का स्वाद नहीं आया, जिस को प्रभु का नाम नहीं मिला, वे बद्-किस्मत हैं, उन्हें जमों के वश (में समझो, उनके सिर पर आत्मिक मौत हमेशा सवार रहती है)। जो मनुष्य गुरु की शरण में नहीं आते, जो साधु-संगत में नहीं बैठते, लाहनत है उनके जीवन को, उनका जीना तिरस्कार योग्य है।3।

जिन हरि जन सतिगुर संगति पाई तिन धुरि मसतकि लिखिआ लिखासि ॥ धनु धंनु सतसंगति जितु हरि रसु पाइआ मिलि जन नानक नामु परगासि ॥४॥४॥

नोट: इस शब्द की बाबत बहुत विद्वानों ने यह लिखा है कि गुरु रामदास जी ने अपने विवाह के समय यह शब्द गुरु अमरदास जी के हजूर उच्चारण किया था। पर ये बात परख की कसवटी पे खरी नहीं उतरती। संन्1552 में गुरु अमरदास जी गुरु गद्दी पर बैठे। सन् 1553 में उन्होंने अपनी लड़की बीबी भानी जी की शादी जेठा जी (गुरु रामदास जी) के साथ की, तब उनकी उम्र 19 साल थी। गूरू अमरदास जी सन्1574 में ज्योति से ज्योति समाए और गुरु रामदास जी गुरु बने। अपने विवाह के 21 साल बाद गुरु बने। तब तक वे गुरु नहीं थे बने, तब तक वे शब्द ‘नानक’ का इस्तेमाल करके कोई वाणी उच्चारण का हक नहीं रखते थे। सो, ये शब्द गुरु रामदास जी के विवाह के समय का नहीं हो सकता। सन् 1574 के बाद का ही हो सकता है जबकि वे गुरु बन चुके हुए थे।

पद्अर्थ: धुरि = प्रमात्मा से। मसतकि = माथे पर। लिखासि = लेख (शब्द ‘जीवासि’ और ‘लिखासि’ शब्द ‘जीए’ और ‘लेख’ के तुकांत पूरा करने वाले रूप हैं)। जितु = जिस में, जिस द्वारा। मिलि जन = जनों को मिल के, प्रभु के सेवकों को मिल के।4।

अर्थ: जिस प्रभु के सेवकों को गुरु की संगति में बैठना नसीब हुआ है, (समझो) उनके माथे पर धुर से ही भाग्यशाली लेख लिखे हुए हैं। हे नानक! धन्य है सत्संग! जिस में (बैठने से) प्रभु के नाम का आनन्द मिलता है, जहाँ गुरमुखों को मिलने से (हृदय में परमात्मा का) नाम आ बसता है।4।4।

रागु गूजरी महला ५ ॥ काहे रे मन चितवहि उदमु जा आहरि हरि जीउ परिआ ॥ सैल पथर महि जंत उपाए ता का रिजकु आगै करि धरिआ ॥१॥

पद्अर्थ: काहे = क्यूँ? चितवहि = तू सोचता है। चितवहि उदमु = तू उद्यम चितवता है, तू जिकर करता है। जा आहरि = जिस आहर में। परिआ = पड़ा हुआ है। सैल = शैल, चट्टान। ता का = उनका। आगै = पहले ही।1।

नोट: ‘उद्यम चितवनें’ और ‘उद्यम करने में फर्क याद रखने योग्य है। रोजी कमाने के लिए उद्यम करना हर एक मनुष्य का फर्ज है। गुरु साहिब ने चिन्ता शिकवे शिकायतों से भरे गलत रास्ते से रोका है।

अर्थ: हे मन! (तेरी खातिर) जिस आहर में प्रमात्मा स्वयं लगा हुआ है, उस वास्ते तू क्यूँ (सदा) चिन्ता-फिक्र करता रहता है? जो जीव प्रभु ने चट्टानों में पत्थरों में पैदा किए हैं, उनका भी रिजक उसने (उनको पैदा करने से) पहले ही बना रखा है।1।

मेरे माधउ जी सतसंगति मिले सु तरिआ ॥ गुर परसादि परम पदु पाइआ सूके कासट हरिआ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: माधउ जी = हे प्रभु जी! हे माया के पति जी! (माधउ = मा+धव। मा = माया। धव = पती)। परसादि = कृपा से। परम पदु = सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा। कासट = काठ, लकड़ी।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे प्रभु जी! जो मनुष्य साधु संगति में मिल बैठते हैं, वो (व्यर्थ की चिन्ता-फिक्र से) बच जाते हैं। गुरु की कृपा से जिस मनुष्य को यह (अडोलता वाली) उच्च आत्मिक अवस्था मिल जाती है, वह (मानों) सूखी लकड़ी हरी हो गई।1। रहाउ।

जननि पिता लोक सुत बनिता कोइ न किस की धरिआ ॥ सिरि सिरि रिजकु स्मबाहे ठाकुरु काहे मन भउ करिआ ॥२॥

पद्अर्थ: जननि = माँ। सुत = पुत्र। बनिता = पत्नी, गृहिणी। धरिआ = आसरा। किस की = किसी का। सिरि = सिर ऊपर। सिरि सिरि = हरेक सिर ऊपर, हरेक जीव के लिए। संबाहे = संवाह्य, पहुँचाता है। मन = हे मन!।2।

अर्थ: (हे मन!) माता, पिता, पुत्र, लोग, पत्नी - कोई भी किसी का आसरा नहीं है। हे मन! तू क्यूँ डरता है? पालनहार प्रमात्मा हरेक जीव को स्वयं ही रिजक पहुँचाता है।2।

ऊडे ऊडि आवै सै कोसा तिसु पाछै बचरे छरिआ ॥ तिन कवणु खलावै कवणु चुगावै मन महि सिमरनु करिआ ॥३॥

पद्अर्थ: ऊडे = उड़े। ऊडे ऊडि = उड़ उड़के। सै = सैकड़ों। तिसु पाछै = उस (कूंज) के पीछे। बचरे = छोटे छोटे बच्चे। छरिआ = छोड़े हुए होते हैं। चुगावै = चोगा देता है। मनि महि = (वह कुंज अपने) मन में। सिमरनु = (उन बच्चों का) ध्यान। खलावै = कौन खिलाता है? कोई भी कुछ खिलाता नहीं।3।

नोट: ‘सै’ शब्द ‘सौ’ का बहुवचन है।

जैसी गगनि फिरंती ऊडती, कपरे बागे वाली।
उह राखै चीतु पीछै बीचि बचरे, नित हिरदै सारि समाली।1।7।13।51। (गउड़ी बैरागणि महला ४)

अर्थ: (हे मन! देख! कूंज) उड़ उड़ के सैकड़ों ही कोसों से आ जाती हैं, पीछे उसके बच्चे (अकेले) छोड़े हुये होते हैं। उन्हें कोई खिलाने वाला नहीं, कोई उन्हें चोगा नहीं चुगाता। वह कूंज अपने बच्चों का ध्यान अपने मन में धरी रखती है (और, इसी को प्रभु उनके लालन पालन का साधन बनाता है)।3।

सभि निधान दस असट सिधान ठाकुर कर तल धरिआ ॥ जन नानक बलि बलि सद बलि जाईऐ तेरा अंतु न पारावरिआ ॥४॥५॥

पद्अर्थ: सभि निधान = सारे खजाने। असट = आठ। दस असट = अठारह। सिधान = सिद्धियां।

नोट: अठारह सिद्धियों में से आठ सिद्धियां बहुत प्रसिद्ध हैं:

अणिमा लघिमा प्राप्ति; प्राकाम्य महिमा तथा।
ईशित्वं च वशित्वं च, तथा कामावसायिता।

पद्अर्थ: अणिमा = बहुत ही सुक्ष्म रूप हो जाना। लघिमा = शरीर को छोटा कर लेना। प्राप्ती = मन इच्छत पदार्थ प्राप्त कर लेने। प्राकाम्य = औरों के मन की जान लेना। महिमा = शरीर को बड़ा कर लेना। ईशित्व = अपनी मर्जी अनुसार सबको प्रेर लेना। वशित्व = सबको वश में कर लेना। कामावसाइता = काम-वासना को रोकने की क्षमता।)

निधान = (नौ) खजाने (सारे जगत के नौ खजाने माने गये हैं। इन खजानों का मालिक कुबेर देवता माना गया है): महापद्मश्च पद्मश्च, शंखो मकर कच्छपौ। मुकुन्द कुन्द नोलाश्च, खर्वश्च निधयो नव।

पदम = सोना चांदी। महा पदम = हीरे जवाहरात। संख = सुन्दर भोजन व कपड़े। मकर = शस्त्र विद्या की प्राप्ति, राज दरबार में सम्मान। मुकंदु = राग आदि कोमल कलाओं की प्राप्ति। कुंद = सोने की सौदागरी। नील = मोती मूंगे की सौदागरी। कछप = कपड़े दाने की सौदागिरी। कर तल = हाथों की तलियों पे। पारावारिआ = पार+अवर, उस पार व इस पार का छोर।4।

अर्थ: हे पालनहार प्रभु! जगत के सारे खजाने और अठारह सिद्धियां (मानो) तेरे हाथों की तलियों पर रखे हुये हैं। हे दास नानक! ऐसे प्रभु से सदा सदके हो, सदा कुर्बान हो, (और कह: हे प्रभु!) तेरी प्रतिभा के इस पार के और उस पार के छोर का अंत नहीं पाया जा सकता।4।5।

नोट: ‘सोदरु’ के शीर्षक के तहत उपरोक्त संग्रह के पाँच शब्द आ चुके हैं। अब आगे नया शीर्षक ‘सो पुरखु’ आरम्भ होता है जिसके चार शब्द हैं।

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रागु आसा महला ४ सो पुरखु    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

सो पुरखु निरंजनु हरि पुरखु निरंजनु हरि अगमा अगम अपारा ॥ सभि धिआवहि सभि धिआवहि तुधु जी हरि सचे सिरजणहारा ॥ सभि जीअ तुमारे जी तूं जीआ का दातारा ॥ हरि धिआवहु संतहु जी सभि दूख विसारणहारा ॥ हरि आपे ठाकुरु हरि आपे सेवकु जी किआ नानक जंत विचारा ॥१॥

पद्अर्थ: सो = वह। पुरखु = (पुरि शेते इति पुरष:) जो हरेक शरीर में व्यापक है। निरंजनु = (निर+अंजनु। अंजनु = कालख, माया का प्रभाव) जिस पे माया का प्रभाव नहीं पड़ सकता। अगम = अगम्य (गम = पहुँच)। अपारा = अ+पार, जिसका दूसरा सिरा ना मिल सके, बेअंत। सभि = सारे जीव। दातार = राजक। ठाकुरु = मालिक।१।

अर्थ: वह परमात्मा सारे जीवों में व्यापक है (फिर भी) माया के प्रभाव से ऊपर है, अगम्य (पहुँच से परे) है और बेअंत है।

हे सदा कायम रहने वाले और सभ जीवों को पैदा करने वाले हरि! सारे जीव तुझे हमेशा स्मरण करते हैं, तेरा ध्यान धरते हैं। हे प्रभु! सारे जीव तेरे ही पैदा किये हुए हैं, तू ही सभ जीवों का दाता है।

हे संत जनों! डस प्रमात्मा का ध्यान धरा करो, वह सारे दुखों का नाश करने वाला है। वह (सभी जीवों में व्यापक होने के कारण) स्वयं ही मालिक है और स्वयं ही सेवक है। हे नानक! उस के बिना जीव बिचारे क्या हैं? (उस हरि से अलग जीवों का कोई वजूद नहीं)।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh